"आदि अंत जाको भयो,सो सब प्रेम न रूप"
दीजियै रति दान , स्वामिनी ।
रूप अवधि गुन अवधि अचागरी रसिक शिरोमनि नेह निधान ।१।
विधना चकित कौन की रचित शोभा लजत छबि अभिराम ।
गोरी किशोरी तेरी जोरी जोग रसतृषे जाचक श्याम ।२।
भोगी लाल भोग तुव प्यारी रूप माधुरी तुव वे काम ।
कृष्णचन्द्र राधा चरणदासि सुनि चुंबन दै पिय भरे भुज दाम ।३।
नीलकमल कर धारिनी लाल मन तन नीलाभ धारिनी पूर्ण चंद्रिका बिखेरती पूर्ण प्रेम में पगी अति भोरी श्यामा किशोरी जु...सघन कुंज में चंद्रमणियों की आभा से सुसज्जित प्रेमकेलि सेज पर प्रियतम श्यामसुंदर संग सम्पूर्ण स्मरयुद्ध में अभिन्न रसतरंगों के अनंत अनंत हिंडोरने झूल रहीं गहन प्रेमालिंगन में आबद्ध हैं... ... ...
प्रियमन भाविनी श्यामा प्यारी जु व वो भी प्रियतम श्यामसुंदर जु के आगोश में...आह !
सखी...बरनी ना जाए युगल छवि... ... ...
गौरसुअंगिनी...रतिरस सुभगिनी...नीलाम्बरा श्यामा जु और वहीं अतिरस भरी...प्रेमभ्रमर रसिकबर की अद्भुत प्यारी छवि री पीताम्बर औढ़े दोऊजन विराजित मणिमय सेज सजीली पर...
श्यामसुंदर अपनी प्रियतमा श्यामा जु को क्रोड़ में लिए हुए अपलक रूपमाधुरी का पान कर रहे और श्यामा जु नयन झुकाए प्रियतम की कारी अंधियारी पलकों तले उलझी अलकों में लिपटी ढुरकी सी...अहा !!
सखी री...कैसे कहूँ री...कैसे बखानूं...यह रसभंवरे परस्पर नेहरस में भीगे स्वतः वृंदावनविपिन रूपी कमल पुष्प को श्रृंगारित कर रहे हैं... ... ...
दोऊ रसभ्रमर...हाय !!सोचै है ना कि प्यारे जु तो रसभ्रमर पर ज्ह प्यारी जु... ... ...हाँ बताए रही...
अरी भोरी...ज्ह प्यारी जु अंक में विराजित हैं पर तनिक यांकी रसतृषा को तो निहार...स्वयं रसीली नागरी...गुणआगरी...सुखसागरी...पल बोतते ना बीतते आकुल व्याकुल हो उठती है...जानें क्यों !!
रसभ्रमर की तृषा हेतु... ... ...
रसीले श्यामसुंदर ऐसे मदनमोहन हैं सखी री...कि श्यामा जु की रसभरी अनियारी छवि का पान करते ना अघाते और प्रतिपल डूबे रहने पर भी उनकी तृषा को विराम नहीं अपितु ऐसी सुंदर उज्ज्वल उरधारिणी सुकोमल कमलिनी पर प्राण वारते रहते हैं...उनके रूपसौंदर्य पर लुटे रहते हैं...प्यारी को सजा सकें ऐसा सामर्थ्य ना जान स्वयं उनके चरण जहाँ पड़ते हैं अपनी पलकें बिछाते हैं...नितनव पुष्प मालाएँ बनाते...कभी उनकी अलकों को तो कभी हियकंवल को सुजाते हैं...कंकन चूड़ी वेणीफूल चूड़ामणि बिछुए नूपुर...सुसज्जित कर प्यारी जु को निरख निरख नयनकाजल से नज़र उतारते हैं...सर्वसेवाओं में प्रधान यह रसिक सिरमौर स्वयं लुण्ठित प्यारी जु के चरणन में... ... ...अहा !!
और यह अति प्यारी भोरी श्यामा जु को बस एक ही सुख है री...श्यामसुंदर रूपी रसभ्रमर को रूपरसपान करवाना और यही उनकी सेवा अपने प्रियतम हेतु...ऐसी गाढ़ तृषा प्यारी जु में अपने प्रियतम को तृप्त करने की कि वे स्वयं रसभ्रमर हो जातीं हैं प्रेमालिंगन में बंध कर...क्षण भर नयनों से ओझल हुए नयन लिपटी श्रीराधिका जु को विहरित कर देते हैं और वे छटपटा उठतीं...हा...प्रियतम... ... ...हा...प्रियतम...अद्भुत तत्सुख अद्भुत प्रेम की राशि प्यारी श्यामा जु का...
अधीर हुईं सदा श्यामसुंदर को अपनी भुजलताओं में बाँध कंठहार बनाए हुए हैं फिर भी आकुल हो जातीं कि प्रियतम को हिय से लग अन्यत्र सुख का एहसास नहीं हो रहा तो मदनमोहन मनहरिनी उन्हें पल पल नव नव रसपान करवाने को व्याकुल अधीर बनीं रहतीं हैं...
प्रीतिरस संग्रामिनी रसपिपासु आराधिका लावण्यसारा किशोरी जु स्मरयुद्ध के लिए प्रतिपल प्रियतम श्यामसुंदर को संभालती रहतीं हैं और श्यामसुंदर रसीली रसखान को संभाले हुए रहते हैं... ... ...
अहा !!परस्पर प्रेममय युगल की भुजवल्लरियाँ और इन भुजलताओं के अति रसमयी गहन प्रेमालिंगन की अद्भुत सुंदर रूपसुधा में छकी छवी...हाय !!
"प्रेम रसासब छके दोऊ,करत विलास-विनोद।
बढ़त रहत उतरत नहीं,गौर श्याम छबि मोद।।"
जयजय श्रीश्यामाश्याम जी !
श्रीहरिदास !!
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