*पद किंकर*
श्रीमन चैतन्यदेव जी जीव को उसके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान देते हुए कहते हैं कि जीव तो नित्य कृष्ण दास है। गर्भ योनि में उल्टा पड़ा जीव कातर हृदय से प्रार्थना करता है प्रभु मुझे इस विष्ठा की कोठरी से मुक्त कीजिये मैं आजीवन आपका भजन स्मरण करूंगा। दयावान प्रभु उसे मानव योनि प्रदान करते हैं कि वह अपने नित्य स्वरूप की प्राप्ति हेतु जाग्रत हो। परन्तु जगत में प्रवेश करते ही जीव माया के प्रभाव से जड़ता की ओर अग्रसर होने लगता है। जैसे जैसे आयु की वृद्धि होती है उस की निर्मलता खोने लगती है तथा स्वरूप विस्मृति भी होती जाती है। मैं अमुक व्यक्ति हूँ , मैं इनका पुत्र, इनका पिता , इनका बन्धु बांधव हूँ इन सबमे पड़कर जीव माया के प्रभाव से अपने वास्तविक स्वरूप से दूर हो जाता है।
हरिकृपा से जब सत्संग की उपलब्धि होती है, जब भवताप से त्रस्त हृदय को हरिकथा से सुख होता है तथा महापुरुषों की वाणी से यह ज्ञात होता है कि मेरा स्वरूप देह का नहीं है। मैं तो अपने प्रियतम प्रभु का *पाद किंकर* हूँ, अभी तक इतना जीवन मैंने व्यर्थ कर दिया , तब उसके प्राणों में अकुलाहट उदय होती है। हा नाथ ! कृपा करो मुझ अधम पर , मैं तो आपही का हूँ , आपसे ही मेरा नित्य सम्बन्ध है । जगत से सम्बन्ध तो अनित्य है । कितने जन्म कितनी योनियां भुगत चुका हूँ परन्तु नाथ मैं आपसे विमुख रहा हूँ। हे दीनबन्धु! हे पतितपावन ! मैं आपका दास हूँ। मैं आपका नित्य सेवक हूँ ,मुझे आप अपनी शरण मे लीजिये। इसी भावना , इसी ताप का उदय होने ही भगवत प्राप्ति का मूल है। जिस भाग्यवान हृदय को प्रभु से सम्बन्ध ज्ञात हो जाये , जिसके प्राण अपने प्रियतम से मिलने को अकुलाने लगें उसे तो प्रभु स्वीकार कर ही चुके हैं। प्रभु तो जीव के नित्य सँगी ही हैं यह ताप , यह विलाप ही तो जीव का सच्चा धन है जो उसे भौतिक कामनाओं से परे करके श्रीहरि की सेवा सुख की कामना में लगा देता है। श्रीहरि की कृपा से ही जीव भगवतोन्मुख होता है। महाप्रभु जी ने अपनी सम्पूर्ण लीला में प्रभु विरह का रसास्वादन किया है। उनकी लीला जीव कल्याण का हेतु है । निर्मल प्रेम की पराकाष्ठा पर श्रीमन चैतन्य देव जीव को भगवत प्राप्ति का सुलभ साधन भगवतनाम रूपी अमृत प्रदान करते हुए मानव जीवन प्राप्ति का परम लाभ बता रहे हैं।
हे करुणासिन्धु! यह सब ज्ञात होने पर भी मुझ पतित के पाषण हृदय में आपकी प्राप्ति के लिए कोई ताप विलाप उदित नहीं हो रहा है। हे गौरसुन्दर!आप ही तो मेरे परम् धन हो तो हृदय को भौतिक लोभ से हटाकर अपने नाम , रूप , वाणी , लीला का लोभ लगा दीजिये। हे करुणेश ! आप तो सदा से जीव सुख के लिए ही करुणावृष्टि करते रहते हो , नाथ ! मेरा हृदय आपसे विमुख हो माया में पुनः पुनः रमण करने लगता है। हे नाथ मुझे अपने नित्य स्वरूप का ज्ञान देकर अपना *पाद किंकर* स्वीकार कीजिये।
मो सम कौन पतित होय नाथा मैं अधमन को सिरमौर!
कूकर रहूँ तिहारी चौखट की नाथा और न मेरी ठौर!
जैसो पँछी होय कोऊ जहाज को कितनी राखे दौर!
हिय माँहिं राखूँ कपट भारी भीतर बाहर रह्यो और!
पुनि पुनि उड़ उड़ जावै इत उत पावै नाँहिं कोऊ छोर!
बाँवरी गल सुतरी डार दीजौ नाम की नाथा सुनो निहोर!
हे गौरसुन्दर !अपनी शरण मे रखिए। नाथ अब अपने चरणों का किंकर कीजिये। आपकी कृपा के बल से सम्भव है नाथ , मुझसे शुद्र जीव का कोई बल नहीं है।
हरिहौ हम होवैं कंगाला!
नाम भजन कछु धन न होवै कीजौ दया कृपाला!
द्रवित न होवै पाथर हिय मेरौ जिव्हा नाम न गावै!
ताप विलाप कबहुँ न उर मेरौ दृगन नाय झरावै!
सेवा लोभ न जगै उर अंतर कछु कहत सकुचावै!
बाँवरी उर अंतर न कोऊ पीरा खोटो जन्म बितावै!
जय जय गौरहरि
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