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विरह Shayri

मिलन से पहले वो साँची पीर की गुरेज़ है
संगेमरमर से नही कँटीली पथदण्डी की तलब है

यूँ सस्ते में भी मिले रब तो क्या रब रहा वो
कुछ यूँ मिले की न सिसकियां थमे न आहे रुके

तू कोहिनूर है मेरे हमदम सांवरे
पर क्या पत्थरोँ की भी मैंने क़द्र की कभी

कुछ यूँ मिलना की हर पत्थर में मोती दमके
कुछ यूँ मिलना की हर बुंद अश्क की सितारों सी दमके

जब तक यें आँखे पानी ही गिराती रहे
मिल कर भी न पहचानना ना नींद ताउम्र गर आती रहे

मिलना अपने तमाम दिल वालो से
किसी एक को भुला जाना फिर सदियों के लिए
जब तलक हर रोम रोम से तुझे तेरा नाम न सुनाई दे
ना पलटना कभी उन मैली हसरतो की तरफ

गर हुआ जो तलब ऐ इश्क़ दीदार का
तब कुबुलन सबाब ऐ रहम इंतज़ार का

इस दफा कुछ ऐसे मिल कि
रूह तन उधेड़ कर गले जा मिले

मेरी मुहब्बत गर मेरे यार की पाकशाही को सस्ता करती है
तो आशिक नही गुनेहगार करार कर सजा ऐ जहन्नुम बख्शो

अभी तो दीदारे हुज़ूर शुरू ही हुआ है
आशिक़ी कहाँ अभी तो सलाम ही हुआ है

इनायतें ही है कि उनके चाहने वालो से दो बात हो जाती है
वरना हम पत्थर पिटते पिटते पत्थर ही हो चले है

मुझे शिक़वा ग़र कुछ है तो बस इतना
काश ज़रा भी उनके लायक होता ...

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