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प्रश्न और रामसुखदास महाराज जी

राधे राधे.. 
"गीताप्रेस गोरखपुर परिवार" के ओर से आज का सत्संग :
दिनांक : 17-09-2015

🌷🌷      बहुत-से सज्जन मन में शंका उत्पन्न कर इस प्रकार के प्रश्न करते हैं कि दो प्यारे मित्र जैसे आपस में मिलते हैं क्या इसी प्रकार इस कलिकाल में भी भगवान् के प्रत्यक्ष दर्शन मिल सकते हैं ? यदि सम्भव है तो ऐसा कौन-सा उपाय है कि जिससे हम उस मनोमोहिनी मूर्ति का शीघ्र ही दर्शन कर सकें ? साथ ही यह भी जानना चाहते हैं, क्या वर्तमान काल में ऐसा कोई पुरुष संसार में है जिसको उपर्युक्त प्रकार से भगवान् मिले हों ?

वास्तव में तो इन तीनों प्रश्नों का उत्तर वे ही महान पुरुष दे सकते हैं जिनको भगवान् की उस मनोमोहिनी मूर्ति साक्षात् दर्शन हुआ हो |
यद्यपि मैं एक साधारण व्यक्ति हूँ तथापि परमात्मा की और महान पुरुषों की दया से केवल अपने मनोविनोदार्थ तीनों प्रश्नों के सम्बन्ध में क्रमशः कुछ लिखने का साहस कर रहा हूँ |

(१) जिस तरह सत्ययुगादि में ध्रुव, प्रह्लादादि को साक्षात् दर्शन होने के प्रमाण मिलते हैं उसी तरह कलियुग में भी सूरदास, तुलसीदासादि बहुत-से भक्तों को प्रत्यक्ष दर्शन होने का इतिहास मिलता है; बल्कि विष्णुपुराणादि में तो सत्ययुग की अपेक्षा कलियुग में भगवत-दर्शन होना बड़ा ही सुगम बताया है | श्रीमद्भागवत् में भी कहा—

कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः |
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकिर्त्तानात् || (१२ | ३ | ५२)
‘सत्ययुग में निरंतर विष्णु का ध्यान करने से, त्रेता में यज्ञद्वारा यजन करने से और द्वापर में पूजा (उपासना) करने से जो परमगति की प्राप्ति होती है वही कलियुग में केवल नाम-कीर्तन से मिलती है |’

जैसे अरणी की लकड़ियों को मथने से अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, उसी प्रकार सच्चे हृदय की प्रेमपूरित पुकार की रगड़ से अर्थात् उस भगवान् के प्रेममय नामोच्चारण की गम्भीर ध्वनि के प्रभावसे भगवान् भी प्रकट हो जाते हैं | महर्षि पतंजलि ने भी अपने योगदर्शन में कहा है—
स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोग: | (२ | ४४)
‘नामोच्चार से इष्टदेव परमेश्वर के साक्षात् दर्शन होते हैं |’
जिस तरह सत्य-संकल्पवाला योगी जिस वस्तु के लिए संकल्प करता है वही वस्तु प्रत्यक्ष प्रकट हो जाती है, उसी तरह शुद्ध अन्तःकरणवाला भगवान् का सच्चा अनन्य प्रेमी भक्त जिस समय भगवान् के प्रेममें मग्न होकर भगवान् की जिस प्रेममयी मूर्ति के दर्शन करने की इच्छा करता है उस रूप में ही भगवान् तत्काल प्रकट हो जाते हैं | गीता अ० ११ श्लोक ५४ में भगवान् ने कहा है—

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन |
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ||
‘हे श्रेष्ठ तपवाले अर्जुन ! अनन्य भक्ति करके तो इस प्रकार (चतुर्भुज) रूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिए और तत्त्वसे जानने के लिए तथा प्रवेश करने के लिए अर्थात् एकीभाव से प्राप्त होने के लिए भी शक्य हूँ |’

एक प्रेमी मनुष्य को यदि अपने दूसरे प्रेमी से मिलने की उत्कट इच्छा हो जाती है और यह खबर यदि दूसरे प्रेमी को मालूम हो जाती है तो वह स्वयं बिना मिले नहीं रह सकता, फिर भला यह कैसे संभव है कि जिसके समान प्रेम के रहस्य को कोई भी नहीं जानता वह प्रेममूर्ति परमेश्वर अपने प्रेमी भक्त से बिना मिले रह सके ?
अतएव सिद्ध होता है कि वह प्रेममूर्ति परमेश्वर सब काल तथा सब देश में सब मनुष्यों को भक्तिवश होकर अवश्य ही प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं |
श्री जयदयाल जी गोयन्दका सेठजी

🌷🌷       हे प्रभो ! बगीचे के रंग-बिरंगे फूलों की सुन्दरता और सुगन्ध आकाशमें उड़नेवाले पक्षियोंकी चित्र-विचित्र वर्णों की बनावट और उनकी सुमधुर काकली, सरोवरोंमें और नदियों में इधर-से-उधर फुदकनेवाली मछलियों की मोहिनी सूरत और पुष्पोंके रस पर मंडराती हुई तितलियों की कलापूर्ण रचना, सब मनको हरण किये डालती हैं । यह सुन्दरता, सौरभ, कला और यह मीठा स्वर, हे सौन्दर्य और माधुर्यके अनन्त सागर ! तुम्हारे ही तो जलकण हैं । बस, हे अखिल सौन्दर्यमाधुर्य निधि ! ऐसी कृपा करों, जिससे मैं इस बात को सदा स्मरण रख सकूँ और प्रत्येक सौन्दर्य-माधुर्यकी बहती धाराका सहारा लेकर तुम्हारे अनन्त सौन्दर्य-माधुर्यका कुछ अंशों में तो उपभोग करूँ !

* * * * * * * * *

हे प्रभों ! मेरे हृदय में ऐसी आग लगा दो, जो सदा बढती रहे । विषयों की सारी आसक्ति और कामना उसका ईधन बनकर उसे और भी प्रचण्ड कर दे कि फिर वह तुम्हारी दर्शन-सुधा-वृष्टिके बिना कभी बुझे ही नहीं !

हे प्रभो ! जैसे सूर्यकान्तमणि सूर्यकी किरणों का स्पर्श पाते ही जल उठती है, वैसे ही हे नाथ ! तुम्हारे भक्त साधुओं का जाने-अनजाने संग पाते ही मेरे मन में तुम्हारे प्रेम की आग भड़क उठे । हे अनन्त ब्रह्मांडो में अनन्त सूर्यों के प्रकाशक ! मेरे मन को सूर्यकान्तमणि के सदृश बना दो !
भाई जी श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी

🌷🌷      स्वामी रामसुखदास जी के पुस्तक 'प्रश्नोत्तरमणिमाला' कोड 1175 गीताप्रेस गोरखपुर :

प्रश्न - जीव का भगवान में आकर्षण (प्रेम ) है , पर भगवान का जीव में आकर्षण कैसे है ?
उत्तर - आकर्षण तो भगवान और जीव - दोनों में है , पर भूल जीव में है , भगवान में नहीं | जैसे बच्चे को माँ का प्रेम नहीं दिखता , ऐसे ही संसार में आकर्षण होने के कारण मनुष्य को भगवान का प्रेम (आकर्षण ) नहीं दिखता | यदि भगवान का प्रेम दिखे (पहचान में आये ) तो उसका संसार में आकर्षण हो ही नहीं | 
भगवान कहते है - ' सब मम प्रिय सब मम उपजाए' ( मानस, उत्तर. ८६ |२ ) भगवान का प्रेम ही जीव को खींचता है , जिससे कोई भी परिस्थिति निरन्तर नहीं रहती |

प्रश्न - क्या परम प्रेम की प्राप्ति से पहले मुक्त होना आवश्यक है ?
उत्तर - ज्ञान मार्ग में मुक्ति के बाद प्रेम प्राप्त होता है और भक्ति मार्ग में प्रेम -प्राप्ति के बाद मुक्ति होती है |
प्रेम तो जीवनमात्र में पहले से ही विधमान है , पर संसार में राग होने के कारण वह प्रेम प्रकट नहीं होता | सत्संग से जितना राग मिटता है , उतना ही प्रेम प्रकट होता है और जितना प्रेम प्रकट होता है , उतना ही राग मिटता है |
वास्तव में प्रेम के अधिकारी मुक्त महापुरुष ही होते है | मुक्ति से पहले भी प्रेम हो सकता है , पर वह असली नहीं होता | हाँ , साधक के लिए वह बहुत सहायक होता है | असली प्रेम मुक्ति के बाद ही होता है | मुक्ति से पहले ' मैं भगवान का हूँ '- ऐसी मान्यता रहती है , पर मुक्ति के बाद मान्यता नहीं रहती , प्रत्युत अनुभव होता है |

प्रश्न - भगवान ने प्रेम लीला के लिए स्त्री -पुरुष ( राधा -कृष्ण )- का रूप क्यों धारण किया ? दो मित्रों में भी तो प्रेम हो सकता है !
उत्तर - संसार में सबसे अधिक आकर्षण स्त्री -पुरुष के बीच ही होता है | इसलिए आकर्षण तो स्त्री -पुरुष की तरह हो , पर अपनी सुखबुद्धि किंचिन्मात्र भी न हो - यह बात संसारी लोगों को समझाने के लिए ही भगवान ने राधा -कृष्ण का रूप धारण किया | जिसकी दृष्टि में स्त्री -पुरुष का भेद हो , वह राधा -कृष्ण की प्रेम -लीला की नहीं समझ सकता | इसको ठीक समझने के लिए साधक को चाहिए की वह स्त्री -पुरुष का भाव न रखे | अपने में सुखबुद्धि होने के कारण इसको समझने में कठिनता पड़ती है | जिसके भीतर किंचिन्मात्र भी अपने सुख की आसक्ति है , वह प्रेम -तत्व को नहीं समझ सकता | इसलिए जीवन्मुक्त ही इस भाव को ठीक समझ सकता है |

प्रश्न -क्या श्रीजी की रागात्मिका भक्ति जीव को प्राप्त हो सकती है ?
उत्तर - हाँ , हो सकती है | कारण की भगवान ने श्रीजी को भी अपने में से प्रकट किया है और जीवों को भी | अतः श्रीजी और जीव में कोई अन्तर नहीं है | अन्तर इतना ही है की जीव ने मिली हुई स्वतन्त्रता का दुरूपयोग किया , पर श्रीजी ने दुरुपयोग नहीं किया | अतः श्रीजी की रागात्मिका भक्ति (प्रेम ) सब जीवों को प्राप्त हो सकती है | 

प्रश्न - प्रेम में एक से दो होनेपर दोनों समान रहते है , फिर दस्यभाव (एक स्वामी , एक सेवक ) कैसे होता है ?
उत्तर - दास्य आदि कोई भाव हो ,प्रेम में अपनी अलग सत्ता नहीं है ; क्योंकि प्रेम में एक होकर दो हुए है | इसलिए कभी सेवक स्वामी हो जाता है , कभी स्वामी सेवक हो जाता है | कभी राधा कृष्ण बन जाती है , कभी कृष्ण राधा बन जाते है | शंकर जी के लिए कहा भी है - 'सेवक स्वामी सखा सिय पि के'(मानस ,बाल.१५|२ ) !
दक्षिण के एक मंदिर में शंकर जी ने नन्दी को उठा रखा है ! कभी नन्दी शंकर जी को उठाता है , कभी शंकर जी नन्दी को उठाते है ! कभी भगवान कृष्ण इष्ट है , कभी अर्जुन इष्ट है - 'इष्टोचसि मे दृढमिति'( गीता १८ | ६४ ) | इसलिए प्रेम को प्रतिक्षण वर्धमान कहा है |

प्रश्न -जब साधक भगवान में अपनापन करता है , तब उसको प्रेम प्राप्त होता है , पर सिद्ध (जीवन्मुक्त ) -को प्रेम कैसे प्राप्त होता है ?
उत्तर - साधक के लिए अपनापन है और मुक्त के लिए असन्तोष है | तात्पर्य है की जब भगवान की कृपा मुक्ति के रस को भी फीका कर देती है , तब उसको मुक्ति से असन्तोष हो जाता है की 'आप' (स्वयं ) तो मिल गया , पर 'अपना ' (स्वकीय ) नहीं मिला ! मुक्ति से असन्तोष होने पर उसको परम प्रेम की प्राप्ति हो जाती है |

प्रश्न - भगवान मीठे कैसे लगें ?
उत्तर - भगवान मीठे लगेंगे संसार खारा लगने से !

प्रश्न - मुक्ति में तो सूक्ष्म अहंकार रहता है , पर प्रेम में वह नहीं रहता , इसका क्या कारण है ?
उत्तर - कारण यह है की जीव परमात्मा का अंश है | अतः यह परमात्मा से ज्यों-ज्यों दूर जाता है , त्यों -त्यों अहंकार ढृढ़ होता जाता है और ज्यों -ज्यों परमात्मा की तरफ जाता है त्यों -त्यों अहंकार मिटता जाता है | 
इसलिए स्वरूप में स्थित होनेपर भी सूक्ष्म अहंकार रहता है और प्रेम में भगवान के साथ अभित्र होनेपर अहंकार सर्वथा मिट जाता है |

प्रश्न - भगवान में प्रेम कैसे बढे ?
उत्तर -हम केवल भगवान के ही अंश है ; अतः वे ही अपने है | उनके सिवाय और कोई भी अपना नहीं है | इस प्रकार भगवान में अपनापन होने से प्रेम स्वत: बढ़ेगा | इसके सिवाय भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए की ' हे नाथ ! आप मीठे लगो , प्यारे लगो !' भगवान का गुणगान करने से, उनका चरित्र पढने से , उनके नाम का कीर्तन करने से उनमे प्रेम हो जाता है | भगवान के चरित्र से भी भक्त -चरित्र पढने का अधिक माहात्म्य है |

प्रश्न - प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान कैसे होता है ?
उत्तर - प्रेम में योग और वियोग ,मिलन और विरह दोनों होते है | जब भक्त की वृति भगवान की तरफ जाती है , तब 'नित्ययोग ' होता है और जब अपनी तरफ जाती है , तब 'नित्यवियोग ' होता है | भगवान की तरफ वृति जानेपर एक भगवान के सिवाय कुछ नहीं दिखता और अपनी तरफ वृति जानेपर स्वयं अलग दिखता है | 'भगवान ही है' -यह नित्ययोग है और 'मैं भगवान का हूँ '- यह नित्यवियोग है | नित्ययोग में प्रेम का आस्वादन होता है और नित्यवियोग में प्रेम की वृद्धि होती है |

प्रश्न - यदि हम निष्काम भाव से किसी व्यक्ति से प्रेम करे तो उसका क्या परिणाम होगा ?
उत्तर - कामना के कारण ही संसार है | कामना न हो तो सब कुछ परमात्मा ही है , संसार है ही नहीं | निष्काम प्रेम होनेपर संसार नहीं रहेगा | कामना गयी तो संसार गया ! इसलिए निष्काम भाव से किसी के साथ भी प्रेम करें तो वह भगवान में ही हो जायगा | 

प्रश्न - भगवान में प्रेम की भूख क्यों है ?
उत्तर - भगवान में अपार प्रेम है , इसलिए उनमे प्रेम की भूख है | जैसे , मनुष्य के पास जितना ज्यादा धन होता है , उतनी ही ज्यादा धन की भूख होती है | भगवान में प्रेम की कमी नहीं है , पर भूख है |

प्रश्न - प्रेम से रोना और मोह (शोक ) - से रोना - दोनों में क्या अंतर है ?
उत्तर - प्रेम के आँसू ठण्डे और मोह के आँसू गरम होते है | मोह के आँसू तो नेत्रों के बीच से निकलते है , पर प्रेम के आँसू नेत्र के भीतरी ( नासिका की तरफ ) कोने से निकलते है | अधिक प्रेम होनेपर आँसू पिचकारी की तरह तेजी से निकलते है |
स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज

🌷🌷      भगवान का स्वरूप क्या है? यह प्रश्न उसी प्राणी का हो सकता है, जिसने सद्भावपूर्वक भगवान का होकर रहने का संकल्प नहीं किया अर्थात जो भगवान का होकर नह

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