बांवरी बनुं ऐसी
कि सामने हो पिया
तो हो जाऊं मुर्छित गहरी
ऐसो कृपा रस दे प्रिया जी
ना सुध तन की रहत बने
न मन काहे तनिक कहीं लगे
न धन युगल बिन कछु मेरो बने
चुनरी बिखरी
नैना उधडे
होठ थिथरे
अंग अंग कम्प सा
उठता रहे
आह या वाह
युगल बिन ना कछु चाह
निकुंज प्रेम रस गली अति सांकरी
नित नित कछु सरको जाये
चित् भागत फिरे जग माये
युगल पद प्रेम सु याने लगाये
ठिठौली करत जीवन खोय ही दियो
क्षण निमिष प्रेम सांचों चाखो जाये
तृषित रहत नित प्यासो युगल को
युगल अरज दरस बिन दरपण ही न सुहाय
रस जो पीनो है सुक सो होई जा
सुक की सुनी ले सुक संग
प्रेम लता पर बैठी जा ।
रस पीनो को मानस कर
स्वरूप एक से दुई लियो
दुई रस को पिबत पिबत
निज युगल भाव की रस हेत
नन्दनन्दन सुक भी भयो ।
सत्यजीत तृषित
ऐसो का करम होये
पिया संग बातां होये
ऐसो नेक कोई जोग मैं न जानूं
आस मोरी पीया की कृपा को बस मानूं
मेरो बल जल प्यास न बुझावे है
नित रस प्रेम पिलावे ऐसो साहस न होवे है ।।। तृषित ।।।
ना जानू नेह सांचो
ना मानू देह काचो
करत रहूँ भटकत रहूँ
तोपे का आस करूँ
मेरो बल ही कहत रहूँ
न छुटत देह सो नातो
न टूटत हे अहम् को दामो
नाथ मोरे तनिक मोहे पकड़ ही लेय
भागत फिरे चित् किशोरी पद पे लगाई दे
नेह को सांचो दरस चाहू
किशोरी से मिलन कराई दे
नित की आस में नित को पाईए
नित स्वरूप निज चेतन जानिए
जड़ से पूजत रहे जड़ में ही छुटत रहे
चेतन को चेतना से तनिक मनाइये
प्रयास देह को गहरत कहाँ भयो
कछु और डुबकी गहरी कुई में लगाइये
अन्तस् से रिझाओगे अन्तस् में हर्षाओगे
भीतर ही रस मिलेगो भीतर ही दाह पाओगे ।
नित प्रभु ओऊ नित निज को जानोगे
नित देह कृपा से पाइके नित लीला
सेवा को रस नित चखते जाओगे ।।।
तृषित
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