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कन्दर्प केलि-रस

कन्दर्प केलि-रस

कमली में लिपटे युगल-रसिले अपनी छबीली छटा से सन्पुर्ण निकुञ्जस्थली को उद्भासित करते , श्वेत बिछौने पर आसीन थे |

आज की शोभा और ही थी | घनी-कजरारी घनमाला में से झाँकते-झलकते यह द्वय चन्द्र .... ! .... श्यामल विधुमण्डल अलङ्कृत वह सुगौर सुधाराशि और उस उज्ज्वल सुधाकर से मण्डित वह सुनील चन्द्रमण्डल ! .... स्कन्ध से स्कन्ध और शीश से शीश मिलाए उभय वदन-विधु से छलकती .... छवि-पीयूष-धाराओं का उन्मुक्त प्रवाह ..... ! प्रियतम तनिक हिले  ...... प्रणय मज्जिता किशोरी तनिक चौंकी , पर कुछ बोली नहीं | हाँ , एकबार भोले नयन उठा , प्रियतम की और देखा | रसरंग रँगीले किशोर के अरुणाधर न जाने किस विलास-रस-रहस्य को ले विकसित हुए | अर्द्ध मुकुलित मुस्कान-मण्डित दलद्वय ने अतिलाघव से मधुमयी प्रिया के ... मृदुल-शीतल कपोल की रसार्चना की और फिर वे केलिरस पारंगत ..... सुन्दर किशोर झट सीधे बैठ गए | हाँ , एक बार नयनकोर से प्रिया के वदनविधु पर मदमाती अनगिन भाव लहरियाँ अवलोक , तनिक सरके और किशोर के कपोल से कपोल सटा .... और ... और मुस्कराये ... |

इस .... तनिक सी हलचल से कमली ज़रा सरकी | अहा ! मधुरिम छवि की कितनी- कितनी किरण मालिकाएँ फूट पडी .... | प्रिया के कण्ठ-प्रदेश की ....... उज्ज्वल मधुरिमा उस काली-कमली से अनावृत हो , रसलोभी सुरत कान्त को झकझोरने लगी | तनिक सा मुड़ , वह सीधे बैठ गए | न जाने कैसी सुरसपगी भावभंगिमा से उनके चपल नयन स्थिर हो , प्रिया की उन छवि लहरियों में डोल उठे |

इधर इनके सरकने से रसरञ्जित सुन्दरी राधिका एक बार फिर चौंकीं , फिर चकित विस्मित नयन उठा उन्होंने प्रिय की ओर देखा | ओह ! अनंग रंगाम्बुधि में अनुक्षण वर्द्धित वह रस का ज्वारभाटा | क्षणभर अपलक निहार सकीं | फिर उन्होंने नयन नत कर लिये | पर ..... नयन संकोच की परिधि में रहने को तैयार न हुए | उन्होंने .... किशोरी राधिका को उद्वेलित कर दिया | विवश किशोरी ने फिर पलक उठा .... | दृष्टि प्रिय के श्यामलोज्ज्वल ग्रीवा की स्निग्ध कमनीयता पर अटकी रह गयी , तनिक सा स्कन्ध भाग भी दिख रहा था | कमली में उलझे पीतपट का एक अंश कजरारी घटा में दमकती विद्युच्छटा की शोभा का अपहरण करता सा प्रिया के चित्त को न जाने किन-किन भावधाराओं में डुबाने लगा | दोनों चुप थे , दोनों निस्पन्द थे , पर .... नव मृगराज वह सबल सुन्दर , साँवर सुकुमार नयनों की भाषा में शत-शत रसयाचमाएँ प्रस्तुत करते , उसमें अवगाहन कर रहे थे और .... संकोच- रस-मज्जिता वह रूपरस पयस्विनी प्रियतमा अपनी उमंग तरंग मालाओं को बरबस अपने अन्तस्तल में थामती सी कभी उस छवि सिन्धु को तनिक सा अवलोक लेती और फिर नयन झुका , कुछ क्षणों को खोयी सी हो जाती |

सनसनाती शिशिर-समीर की एक प्रबल झकोर वेगपूर्वक भीतर आयी | अपने रोमांचकारी शीतल स्पर्श से दोनों को सचेत कर लौट गयी | रोमांचित युगल सिहरे अब फिर वही चपल मुस्कान अधरों पर राजित हो नवल अठखेलियों को आमंत्रित करने लगी |

रसमत्त प्रियतम ने कमली खींच प्रिया सहित अपने को भली प्रकार आवृत कर लिया | निशा प्रसूनों से महकता वह कुञ्जकक्ष.....  विलास पुष्प को पूर्ण प्रस्फुटन के लिये बाध्य करने लगा | प्रिया के कण्ठ को युगल भुजवल्लरी से मण्डित कर , वह श्यामल चन्द्र ....... उस सुगौर वदन विधु पर अपनी सुधाराशि बिखेरता ..... उन्मत्त हो , झूम उठा | नयनों से झरती अनंग-रंग धाराओं ने ...... अधर रसरंग ..... को वेग प्रदान किया | उस वेग में , आवेग में कोई अवरोध टिक न सका | प्रिया की सभी नकरात्मक चेष्टाएँ विफल हुईं , प्रियतम को बिम्बफल , श्रीफल भेंट करती हुई .... | भेंट को समेट कर , सँभाल कर , स्वच्छन्द उपयोग - उपभोग करने में परम निष्णात वे रसधूम विलासी नवल किशोर....... | कमली में तरंगित वह केलि कलाम्बुधि की कोटि-कोटि रसलहरियाँ ....... !
अर्द्धरात्रि की नीरवता में चन्द्रकिरणें चुपचाप भीतर आ , इन उभयचन्द्र की छवि किरणों को अवलोक , ठगी सी रह गयीं | कुछ देर बौरीयी सी , अकी-जकी सी उस छविपीयूष , केलिसुधा का पान कर वह फिर लौट गयीं | क्या जाने क्यों , वह हतप्रभ होकर चली गयीं या छवि की उस चकाचौंध में उनसे ठहरते न बना अथवा एकान्तिक केलि विलास रस को उन्मुक्त सुअवसर देने के लिए वे वहाँ से चली गयीं , क्या पता ?
           
             उस तिमिराच्छादित कुञ्जकक्ष में उन्मुक्त , स्वच्छन्द , अनियन्त्रित ...... कन्दर्प-केलि-रस का उन्मत्त-विलास !!  सत्यजीत "तृषित" !!

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