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भाव वार्ता ...

निकुंज की प्यासी
अमृत से भी तृप्त नहीं  ...
निरत निरन्तर नीर धारा
नैनन झर झर ...
तन में दर्द
मन में कभी विरह
कभी आनन्द रस
आत्मा में आलोक
बुद्धि से सरोकार नहीं

स्वयं से ही पीडा ...
स्वयं की श्वांस
जीवन
भौतिकता
और अनवरत होते पापकर्म
मलिनता से भय
तडप
उत्कंठा
प्यास
रसतृषा अनवरत रहना
अनवरत इतनी की मृत्यु
पर विराम न हो ...
मिलन पीर उस पार तक
हरी भरी रहे ...
जीवन पीघल जाये
शरीर सूख जाये
वेदना हरि भरी रहे
लगने लगे की कुछ पा लिया
तो उतार दें ... प्राप्ति को ...
कोई प्राप्ति नहीं
कोई बाहरी रस नहीं
कोई भौतिक मान्यता
मांग नहीं ...
केवल युगल ...
भजन हम सुनते है
पर तडपना जरुरी है
नृत्य भी अति आनन्द की
अभिव्यक्ति है ...
जो शरीर से बाहर निकलना
चाहती है

नृत्य - आनन्द रस के पार करुणा है !

करुणामयी से करुणा जगत मांगता है !

परन्तु मानवीय जगत में करुणा साक्ष्य दिखती नहीं ...

करुणा सबसे गहरी बात है ...सबसे

करुणा

कोयल कौए के भेद को

मिटा डालती है

जहाँ भी भेद
वहाँ करुणा नहीं
जहाँ करुणा नहीं
वहाँ राधा जु नहीं
जहाँ राधा जु नहीं
वहाँ माधुर्य साँवरे नहीं ...
केवल वहम् मात्र ...
या ऐश्वर्य कृष्ण ...

जो मिलें ...
वो उनका ...
अगर ...
निकुँज रस की प्यास है
तो अपनी ओर से कोई मांग नही
समर्पण
प्रेम रस में झुठा शब्द है

समर्पण
प्रेम रस में झुठा शब्द है
क्योंकि पूर्व में सब
कुछ उनका ही है ...

समर्पण के लिये कुछ
अपना ही हो ...
अपना कहना ...
उन्हें ना मानना है !
सो किसी तरह की कोई भी
वस्तु , कोई भी प्रयास ...
सब उनसे ही है ...

वो आपको सस्ते में सलटाना चाहते है ...
मांग से ...  माया के प्रभाव से !
पर ! रस पीना हो तो ना मांगे ...
जो भी मिल रहा है तब विशेष कृपा
से होगा ! ..

जीवन के कुछ क्षण कष्टमय लग सकते है ... पर केवल
दुख की प्रतीति है !
दुख है नहीं ... ...
प्रत्येक अवस्था में आनन्द मय
होना ही कृष्ण मय होना है !
और आनन्द सुखा है ...
केवल स्व हेतु है ! तो फिका है  ..
करुणा आवश्यक है !
और पुन: कहूं ... करुणा के नारे
लगाना करुणामय होना अलग है !
करुणतम् का निज सुख होता ही नहीं ...
स्व को हटा पर के लिये जीवन को बिछा देना ...
रस जीवन में जब आयेगा ...
जब आप खुद ही खुद के जीवन में न हो ...

आप कहे की ...
अब कोई सरोकार नहीं ...
तब ही मुसलाधार बारिश होती है ...
चुंकि शरण हो चुकी है ...
तो शरण तो सुगन्धित होनी ही है !
परन्तु तब भी स्वयं सुख का बोध
न हो ...
प्राय निज सुख न चाहने वाले
भौतिकता में मुर्ख है !
परन्तु रस मय को केवल युगल निज सेवा भाव की अपेक्षा है ...
रस के क्षेत्र में भी परीक्षायें है ...
क्योंकि जीव निकला प्राकृत जगत
से है ! अप्राकृत को पी सकेगा कि नहीं ! ...
पूर्ण अप्राकृत ही अप्राकृत सुख को पी सकता है ... चुंकि स्वयं पीता
तो बखान कर सकता की रस कैसा है ... परन्तु  कोई पिला रहा है !
जब भी अमुल्य कुछ मिला हम अतिभाव में प्राप्त करने के कारण ... अनुभुतियाँ न सहज सके ! ...
सो रस अनकहा है ... परन्तु रस मार्ग कथनिय है ... और दृष्य जीव जगत रसमय न होकर रसपथिक है ! एक पथिक का दायित्व है और पथिकों को प्रशस्त करें ...
मार्ग में होने से महक है ...
लग रहा है कुछ मिलेगा ...
परन्तु संशय रहा तो कह नहीं सकते कि क्या मिलेगा ... वरन् हम
पूर्ण विचार से पथ पर है तो जानते है ... हमने हमारा रस कहाँ तक बांधा है ...
सब कुछ ईश्वर के अधीन हो तो रस हमारा निर्धारित् रस न होकर वो रस होगा जो युगल सरकार की निज अनुभुती है ...

रस कहा नहीं जाता ...
क्योंकि रस अप्राकृत है ...
दृश्य जगत का नहीं ...
इन्द्रियाँ केवल पंच तत्वमय जगत
का बखान कर सकती है ...
प्राकृत जगत ... पंच तत्वमय ..दृश्य जगत् है !

अप्राकृत जगत ... ईश्वरिय क्षेत्र है ! जहाँ प्रकृति के ऊपर की स्थिति है !
सिद्ध देह या सुक्ष्म देह ही अप्राकृत
को छु सकती है ...
स्थुल देह स्थुल को ही देखेगी ...

इसलिये मिली हुई लीला ... स्थुल की प्रकृति की ही वार्ता करती है ...
उपमायें वें होती है जो आपने दृश्य जगत् में देखा या सोचा है ...
हम स्वर्ण से ऊपर धातु की कल्पना नहीं कर सकते परन्तु ईश्वर पूर्ण समर्थ है ... नविनतम् बहुमुल्यतम्
अकथनिय तत्क्षण सृष्टि के लिये ...
जी ... पर प्यास गहरी शुद्ध पूर्णतम् हो
ईश्वर ! का मोल भी प्रेमी हेतु है ...
अधिकत्तर लोग ईश्वर को केवल भौतिक जीवन का सेवक बनाना चाहते है ...
सबने सुना है ...
प्रभु संग खेती करते है ...
झाडु लगाते है ...
भात भरते है ...

बस यें कारण है बहुतों के !
वो अच्छे सेवक है और यें सब
जानते है !

ईश्वर को ईश्वर की तरह
कोई पाना नहीं चाहता ...

उनकी और से सब खुला है ...

As you wish ...

यें सुत्र है उनका ! तथास्तु !
जगत ने हजार तरीके से ईश्वर को पाया ... जिसने जैसे पाया
कहा कि केवल मेरा पथ ही ईश्वर
हेतु है ! योग - तंत्र - मंत्र - साधना - प्रेम - भक्ति सब तरह से
पाया है जगत ने !
सबने अपना ही सिद्ध कहा ... परम् कहा !
मैं बहुत गहरा है ... बहुत ! लगता है छुट गया ... बीते दिन मैंने
ख़ुद में अनुभुत किया ... मुझमें अहंकार नहीं यें भी अहंकार  है ... ...
जी अहंकार ना हो ... सो तृषित

रस मिले रस को संग्रह न कर
प्यासा रहना

तृप्त न होना मेरा भाव है !
मेरी व्यक्तिगत् भाव भावना नहीं कहता .. 
वो अजीब है ...
बस तडप है ...

प्यास ... गई ! लगा कि पूर्ण
की और है ... कुछ पा रहे है
तो अहंकार

युगल प्रेम चाहिये ...

भीतरी भजन हो ...
अदृश्य !
जिसे न आप संख्याओं में
बाँधों न वें

जैसे मेरा मन हुआ !
कि प्रभु को यें अर्पण करुं
पर मैं कर नहीं पाता ...
और केवल अश्रु संग होते है ...
सब कुछ न कुछ लाते है ...

मैंने देखा कोई गोविन्द
जी के दो गुलाब भी लाया है
तो संतुष्ट है ...
जबकि गुलाब पूर्व में उनके है
वें ही बनाये है ....
फिर महा सौन्दर्य को कुछ
दृश्य सौन्दर्य देने का अहंकार
हो जाता है ...
और सारा ध्यान प्रभु पर न जा कर
अपने पदार्थ पर अटक जाता है !
सो अतृप्त रहना ...
चढाने से वो वस्तु वहाँ चढती नहीं
क्योंकि आपका मन अटका है ...
प्रभु वहीं लेगें जो आप पूरा चित्
से सौंपोगे ... दिया कहना काफी नहीं
मानस सेवा में ऐसी सम्भावना कम है ...

ईश्वर का सुत्र है ...
वर्षा केवल उस मेंढक
या मोर पर नहीं होती
जिसने पुकारा ...

रस एकल हेतु नहीं !
रस सर्वत्र हेतु है !
रस मिलने पर परीक्षा
होती है ... कि हम क्या
अब भी संकीर्ण है !
रस कहा नहीं जाता ...
पर रस को कहने के लिये
खुले मुख की महक
में बहुतों का उत्थान
है !

रस केवल मेरा है .
कैसे दूँ ! अर्थात् मेरा न गया
रस मिल गया ! यें
चमत्कार कैसे हुआ ?

जीव छाछ भी शुद्ध पीले तो
सुगंध आती है ...
कैसे देह में रस की वर्षा
रस की नदी सिमट जाती है !
आश्चर्य !!!

मैं की दीवारें ढह गई तो
कौन तुम कौन मैं और कैसा भेद ! 
रस मिलता है ... पर बहुतों ने
नदियों को ही पी डाला ...
जबकि नदी परोपकार हेतु है ..

वैराग्यता प्रथम सीढी है
रसिकता अन्तिम ... तृषित

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