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विदग्ध लालसा , संगिनी जू

विदग्ध लालसा

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विदग्धा हो...विदग्ध हो उतरती हो...विदग्ध ही करती हो...और...
...तुम सौं मिलन के तांई विदग्ध होनो भी पड़े ना...तभी तुम मिलती ना...
हा ... ... ... हा विदग्धे...हा प्राणप्रियतमे...तुम तुम हो...भोरी...प्यारी...अनियारी...सजीली...सुकुमारी...निरखो...तुम सौं मिलन के तांई प्राण छूटे भी जा रहे पर छूट ही ना रहे...जाने है क्यों ?
अरी...अरी भोरी...जे अभी विदग्ध ना हुए ना...अभी टीस उठ रही...और...
...और उठती ही रहेगी जब तक जे देह से विस्मृति ना होवेगी...
और देह से छूट कर जब समावैगी ना तब विदग्धता टीस ना होगी...बस
...बस...तब जे विदग्धता श्यामसुंदर होकर ही तुममें कहीं समा जावेगी...
ना ना...ना री...उलाहना ना दे रही...अरी...उलाहना तो जे देह की त्रिभंग कुबुद्धि की कुटिल चाल है री...
जे नटवर नंदलाल की त्रिभंगी मुद्रा निरख त्रिभंगी है गई री...कुटिल ह्वै गई...
पतो है...जे दैहिक परपंच और इनके जहरीले डंक जो लगते ना उनमें एक मिठी सी चुभन समाई रह्वे...जो नित्य प्रति विदग्ध करै...
...और जे बुद्धि जो एक तो जगत में लगी पड़ी...दूसरी प्रेम कर रोमांचित ह्वै रही ना...इसकी एक और स्थिति है जो विदग्धता का पोषण कर रही...उसी विदग्धता के पोषण से त्रिभंगी होकर त्रिभंगी हियचोर को उलाहना दे बैठी...
निष्ठुर है...निष्ठुराई में लाल सुंदर से नेह कर बैठी पर नेह कर देह से ना छूटी...
छूटेगी कैसे...कुटिला ने दैहिक परपंचों का तानाबाना बुन रखा और उसी तानेबाने में उलझी पड़ी है...प्राण भी ना छूटें...
छूटेंगे भी ना...क्यों  ?
अरी...हरजानो भरनो पड़े है...जे प्राण तब तक ना छूटेंगे जब तक जे एक बार देह धारण किए का हरजाना ना भुगता लें...अब जे जो देह पाई है ना...इन्हें संसारिक नयनों से निहारे बिना पीछा ना छोड़ेगी...
नाए गई तब तांई प्राण भी ना निकसें...
...तो अच्छो...एक बार जे देह की आँखिन सौं निहार आऊँ
ताकि छूट सकै प्राण...
अब प्राण ना छूटवै की एक और विडम्बना है...प्राण तो प्रियतम सौं मिलें तभी सांची प्रीति कौ भान होवे ना...
अरी...जे तो मिले ही ना...तो कौनसो बिछुड़नो होवै...तो जब बिछड़ी ही भई...तो काहे की आँखों देखी...आह...जे तो खेल रही...हिय को बहला रही...सांची प्रीत की का जानूं री...
देह सौं पुकारूं...इन अधरन तें और इन धमनियों में दैहिक रस ही पुकार रहे ना...तो जे देह कौ ही उपकार भह्यौ मोपै...तो जे उपकार उतारन हेत ही जानो परै एकहु बार...ताकि जे दैहिक नैन निरख कर तृप्त है सकें...
...फिर जो सांची विरह की टीस उठेगी ना...तब मानूंगी...के सांची प्रीति भई...विदग्ध तब होय जाऊँ...
पर अभी तो सच्ची पुकार ही ना उठी...पाषाण सी पड़ी...ना कोऊ रस...ना रस कौ कोऊ सांचो बहता समन्द्र...जे तो एक प्यारी जू की कृपा सुधा कौ असर री...यांके ही रस सौं रस सराबोर होय रही...अन्यथा मुझमें कहाँ वो प्रेम...कहाँ वो रस री प्यारी कौ...कछु ना है...सब तोरि सांची प्रीत की कोर...जो तू मोय रसीली निहारे...
मोय तो लागै...जे विदग्धे सौं मिलन की विदग्धता ही रंग लाएगी री...लागै...यांकी करूणा पाने के तांई मोय विदग्ध होनो पड़ै...और वो भी कोई ऐसो वैसो विदग्ध नाए री...विदग्ध स्यामसुंदर जैसो विदग्ध...तबहीं तो जे विदग्धमाधवे...मोहे प्राणन सौं खेंच लेवेगी और देह से छुटाए कै...रजरानी सौं सिंगार कर नखचंद्र ते धरैगी री...
कबहुं तो विदग्ध है जाऊँ...सांची विदग्धे की सांची विदग्धा होकर यांकी चरनन रज सौं एकमेक हो जाऊँ...हा... ... ...कोमलत्व की कोमल विदग्धा... ... ... जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।।।

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