Skip to main content

विदग्धा , उज्ज्वल श्रीप्रियाजू , संगिनी जू

*विदग्धा*

"गुन रूप भरी विधिना सँवारी दुहूँ कर कंकन एक एक सोहै।
छूटे बार गरैं पोति दिपति मुख की जोति देखि देखि रीझे तोंहि प्रानपति नैन सलौनी मन मोहै।।
सब सखीं निरखि थकित भईं आली ज्यौं ज्यौं प्रानप्यारौ तेरौ मुख जोहै।
रस बस करि लीने श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा तेरी उपमा कौं कहिधौं को है।।"
सर्वकला सम्पन्ना...आह... ... ...कैसे कहूँ सखी री...'रोम रोम जो रसना होती'...पर है ना है न सखी री...
अहा...प्यारी जू सर्वगुणसम्पन्ना सर्व निधिन की निधि...सर्व रूपलावण्य की सारभूता...सर्व रसों की घनीभूत एकमात्र सर्वसुख प्रदायिनी श्यामसुंदर की सर्वरूप श्रृंगारिका हैं री...
सखी...होरि आए रही ना...सर्वरूपेण सर्वसुखकारिणी जे होरि रसरंग की अति गूढ़ रहस्यात्मक उत्सवों की उत्सव री...सर्व रंग घुल एक प्रेम के गहरे रंग में उतर आते ना...तो जे बड़ो ही कलात्मक ढंग होवै री सजरी सजीली रसरंग होरि कौ...
और सर्वकलानिपुणा हमारी प्रेम रसरंगभरी प्यारी दुलारी श्यामा जू सौं रंगहोरि खेलनो तो ऐसे...ऐसे जैसे सगरे रंग धुल जावैं और कलात्मक एक प्रेमरंग ही बच रह जावै री...
अरी...जे प्यारी जू अनंत कलाओं को खान हैं री...एक एक कला का बखान करूँ और अनुपमा प्यारी जू की उपमा देकर...जे बस की बात ना है...पर तनिक प्रयास मात्र से एक रसीली रंगीली होरि की रसबूँद भी मात्र छू जावै प्यारी रस रंग रंगोली की इस दासी को तो सरस बखान है सकै...सो हे प्यारी जू...तनिक होरि रंगोत्सव...ना केवल रंगों के त्योहार ना है री...रसोत्सव की रसीली होरि की अनियारी सुंदर सलोनी रंगोली से एक रस की फुहार की नन्ही सी बुँदिया ही मोपै छिटकाए दो री...किंचित रंग प्रेम का अखियन ते चढ़ै और हिय को माधुर्य रंगत में रंग आत्मा को शुद्ध करि दे तो कछु कह सकूँ री...
सखी री...धातुचित्र...पाकक्रिया...वाक्युद्ध...माल्यग्रंथन...पाठ्यपटु...द्यूतक्रीड़ा...गान-नृत्यादि विद्या...और रति कला की परम पण्डिता...अतिशय प्रखरबुद्धि सम्पन्ना...मुग्धा...आचार्यस्वरूपा...हमारी स्वामिनी श्रीश्यामा जू अनंत कला निपुणा हैं कि प्रत्येक सखी की आभा प्रभा उन्हीं की कृपासिन्धु की अनंतकोटि की रसबूँदें हैं जो स्वयं अतिशय कलात्मक क्रियाकलापों में श्यामा जू से ही प्रेरित हुई हैं और उन्हीं की सेवा में इन कलाओं का भरपूर रससंचालन करतीं हैं...उन्हीं के सान्निध्य में...अहा...तो ऐसी श्रीस्वामिनी जू की कौन सी कला का वर्णन करूँ जिससे अनंत रसकणिकाएँ भीग सकें और कलानिपुणा की अद्भुत कलाओं का आस्वादन कर सकें...सखी री...देव किन्नर नारी...स्वयं श्रीलक्ष्मी ललिताम्बा पार्वती जी और सर्वश्रेष्ठ विद्याओं की संगीतविशारदा माँ सरस्वती भी इनसे प्रेरित होतीं हैं...तो ऐसी कौन सी कला है जिसकी गाढ़ता से जे परम कलाओं की भी कलानिधि हैं री...
अहा...सखी री...तनिक निरख तो...जे प्राणप्रियतम को निरख...जे कर ते चूरी और इनके मुखकमल की दीपति...हाय...जे एकमात्र प्यारी कौ ही श्रृंगार रूप ह्वै के अह्लादित उज्ज्वल है जावै री...अनंत रसों की होरि खेलै जे प्रियतमा संग...सखियन संग...सखागण संग...सबन कू रंगे रंगरेज अपने स्यामरंग में और रंगते रंगते उज्ज्वल भी करि दे...अहा...
पर जानै है...यांते जे स्याम रंग प्रकाशित होवै हमारी अनंत कलानिपुणा प्यारी श्यामा जू के रसरंगों से...अब इससे बड़ी और कौन कला कौ बखान है सके ना री...कि जे वो प्राणप्रियतमा संजीवनी प्यारी श्यामा जू हैं जो अपनी अद्भुत कला तें सर्वरसों के प्रदाता स्वयं रसिकशिरोमनि प्राणप्रियतम को रस देवै है री और ऐसो रंगे है कि विदग्धा के रंग में स्वयं रंगरेज इनकी रसीली रंगकला...श्रृंगार कला में रंग कर नव...नव श्यामा स्वरूप धर ही कुंजन में बिहरे री...और सखियाँ एक तें दो दो श्यामा जू कौ दरस सुख पावैं री...दंग रह जावैं प्यारी की कलात्मक श्रृंगार रसछवियों पर...आसीस देवैं री सदा रसरंग होरि में रचेरंगे रहने का...अहा... ... ...
हमारी भोरि किशोरी प्यारी श्यामा जू ऐसे रस कौ संचार प्रेमपूर्ण प्रवाह करै है कि श्यामसुंदर स्वरूप विस्मृति में स्वयं प्यारी ह्वै जावै...ऐसो अह्लाद कला का कि प्यारी जू ने अखिल ब्रह्मांड के रसीले रंगीले श्यामसुंदर को अपने रंग में रंग लिया और राधिका रूप ही धर दिया... ... ...आह...
अलौकिक कलाओं की स्वामिनी की और क्या कह विदग्धचर्चा करूं री...ऐसी होरि कहाँ कोई खेल सके री...कि सर्कवलाओं का भी श्रृंगार कर दे....और ऐसे रस रंग घोले कि प्रेम में एकमेक कर ले...अहा...
हा...किशोरी जू...हा सर्वकलासम्पन्ना प्यारी श्यामा जू...बलिहारी तन मन प्राणन सौं यांकी प्रियतम हितकारी रसीली अनोखी अद्भुत कला पर...जिस पर स्वयं श्यामसुंदर भी चरनन तें लोटते और चरन रेणुका मस्तक धर तिहारी रसीली कलाओं का स्वयं गुणगान करते...रसिकों से गवाते...और सुन सुन ना अघाते री...अहा... ... ...
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!

*विदग्धा*

राधा...राधा...राधा...राधा... ... ...
सखी री राधा राधा पुकार करती इन मुंदी अखियन में रस भर कर समा जाए...देह धुल कर पवित्र हो और मुख में राधानाम रससुधा से बहती धारा से हिय धुल जाए तो तनिक निरख सकूं री...जे संगीत...जे राग...और जे थिरकती सिहरती श्रृंगारिक भोर जो एक परम सुंदर कौशला कलावती के रसमाधुर्य से छकी पूर्ण रात्रि जगी सी रही नव...नव रसश्रृंगार से सजने हेतु...अहा...
सखी तृषित ये दो नयन एक होकर निरख उठे...नृत्यांगना होती तो एक एक कलासंचार का बखान कर समझाती पर अब किंचित उस अलबेली रूपमाधुरी के अति सुरम्य रागादि की मंद मंद थिरकन पुलकन तें नृत्य करतीं सहज रंगीली दो एकरसरूप में भींजी भीनी फूलनियों की पदथाप को निरखती सर्वकलाओं की कला...अद्भुत भोर सजाती दिव्य निधि श्यामा जू की वैदग्धिक श्रृंगारिका स्वरूप दरस कराती हूं...
नेत्र खुलते ही अधर राधा नाम गा उठे...और इस ललित गान पर थिरक उठे रसकमलिनी के चरण...सुषुप्त भोर उठ बैठी...प्रकाश फैल रहा...चहुं दिसि जैसे सज गईं तनिक नूपुरन की ताल पर...अहा...
नयन खुले तो मिलिततनु अर्धनारिश्वर स्वरूप में जैसे...जैसे...रूप सौंदर्य जग रहा प्रकृति के कलात्मक श्रृंगार हेतु...
सर्वप्रथम श्रृंगारिका से सटे श्रृंगार की क्या व्याख्या करूँ री...उरज सौं उरज...अधर सौं अधर...कर सौं कर...नरम कराअंगुलियों के पेंच लड़े...रोम रोम जैसे एकरंग में रंग कर अद्भुत श्रृंगार किए बांका सा हो उठा...
"स्यामकिसोर जू तुम कौं दोऊ रंग रंगित पीतांबर चूनरी।
ऐसौ रूप कहाँ तुम पायौ अहरनिस सोच उधेर बूनरी।।
मनमोहन सुर ज्ञान सिरोमनि सब अंगनि अंग कोक निपून री।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा तुम्हारी विचित्रताई प्रेम सौं पाइयत रस सूनरी।।"
प्यारी सुकुमारी कलावती के करों का सर्वप्रथम श्रृंगार कि प्रियतम का दरस हो जाता री...सर्व श्रृंगारों की घनीभूत श्रृंगारिका रूपमाधुरी की अद्भुत कला कला सौं संवर सजल होती रव बन बह चली...अब जहाँ जहाँ दृष्टि पड़ती तहाँ तहाँ श्रृंगार हो रहा...जैसे घटा में चाँद और घट में माखन...सखी री...रोम रोम तें चम्पा जुही खिल रही...माथे की बिंदिया सा सूर्य भोर बन उज्ज्वलित हो उठा और चंद्र नखप्रभा में कहीं खो सा गया...कुंज उपवन नृत्यांगना की एक एक सुरीली पदथाप पर खिल रहे...वृंदावन्य धरा पर मयूर मयूरी हंस हंसिनी महक से महके थिरकने लगे...नीलमणिन की माला सी यमुना सुरीला रागालाप कर बह रही...और लताओं पर सारि कोकिल इत्यादि मधुर गान कर रहे...जैसे अप्राकृत ने सम्पूर्ण सृष्टि का नवसृजन कर दिया...
सखी री...इस नृत्यांगना की अटपटी लटपटी तिरछी चाल पर मुग्ध भ्रमर गान कर उठे री...और सर्वकलाओं की अधिष्ठातरी अभिन्न सखियाँ प्यारी जू के थिरकते अंग सुअंगों से सेवारूप हो सम्पूर्ण रतिरस को समेट कर...भर कर...नवश्रृंगार धर कलाओं का संचालन संचार करने लगीं...
अरी...सखी की तनिक पुलकन से सर्वकलामई श्यामा जू श्रृंगार रूप नृत्यांगना हो उठीं और इन्हीं अभूतपूर्व कलानिधि के विस्तार हेतू अनंत अनन्य सखियाँ श्रृंगारिकाएँ होकर इन्हीं की सेवानिवृत्त सखी मंजरी किंकरी हो सज धज गईं...अहा...हिय सौं कुंजन कुंजन जैसे स्नान कर अद्भुत उज्ज्वल रस की खान हो आईं...प्यारी जू का अद्वितीय सखीरस श्रृंगार जिससे सम्पूर्ण वृंदावन चहक महक उठा री...
अब प्यारी जू की तनिक सी भृकुटि विलासिता और कण कण को सजातीं ये प्यारी जू की कलाकृतियाँ...अहा...
क्षण क्षण में नव नव रस समागम हेतु नव नव रसवल्लरियाँ नव नव जुही चम्पा से सुसज्जित...नव नव राग रागिनियों संग प्रियाहियसुखरूप होकर प्रियतम श्रृंगार में जुट गईं...
विचित्र चित्रलिखित प्यारी के सुकोमल करकमलों में थमी ये कलम रूप अनन्य धातुचित्र निर्माण करतीं हैं तो कहीं पाकक्रिया में निपुण प्यारी जू के सहचर्य में स्वादिष्ट व्यंजन...तो कहीं आचार्यश्री से सेवित प्रेरित होते वन्य जीव रसुच्चारण कर सुंदरवर के कर्णपुटों का श्रृंगार हो रहे...वाक्पति मुग्ध अवाक् से हुए कलावैदग्धी स्वामिनी श्यामा जू को निहार निहार पुलकते रहते...अहा...
सम्पूर्ण कुंज जैसे बिसात सा बिछा है और प्यारी जू इस माधुर्य रस से सराबोर रंगीली बिसात की एकमात्र नर्म परमपण्डिता द्यूतक्रीड़ा विजेता को हरातीं चलीं जातीं हैं...
अनंत अनंत कलाओं से रसमुग्ध प्रियतम श्यामसुंदर रतिकला के बाणों से बिंधे प्रतिक्षण आकर्षित मुर्छित होते रहते तो स्वयं कलानिधि करुणानिधि उन्हें नयनाभिराम श्रृंगारिक रंगीली रसभाव भंगिमाओं से उन्हें सम्भालती भी रहतीं...

वैदग्ध सिंधु स्वरूपा श्रीराधा जू अनंत कलाविलासों में निपुण आचार्या सर्वरूपेण स्वशिक्षित स्वतः साक्षात रतिकला...स्फूर्ति रूप हैं...सखी सहचरी...सब इनकी इस वैद्ग्धता की परम सौभाग्यशालिनी साक्षी सदा इन्हें पूजती रहतीं हैं और प्रियतम श्यामसुंदर तो चरणकमलों में लोटते...वेणुवादन से इन्हें रिझाते रहते हैं...नृत्य लावण्यरस श्रृंगारिका प्यारी श्यामा जू विदग्ध सम्पूर्ण वृंदावन का माधुर्य श्रृंगार करतीं रहतीं हैं और इनकी आधारभूत सखियाँ प्रिय को वैदग्ध रस में भीगते देख प्रसन्नमना नित्य नव मंगल आशीष देतीं रहती हैं... ... ...
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात