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करुणापूर्णा श्रीप्रियाजू 1 , उज्ज्वल श्रीप्रियाजू , संगिनी

"ऐसेई देखत रहौं जनम सुफल करि मानौं।
प्यारे की भाँवती भाँवती के प्यारे जुगल किसोरहि जानौं।।
छिनु न टरौ पल होहु न इत उत रहौ एक तानौं।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी मन रानौं।।"
सखी...सखी एक बात पूछूं...सच बताना...सखी कभी भीतर निहारी हो...भीतर अंतर्मन में री...तनिक निहार तो और बता क्या निरखती अपनी अंतरंग गहराईयों में...कैसा दृश्य...कैसा भाव उठता...और क्या रस उकेरा जाता अंतर्हित सखी री...
नहीं...नहीं ना...ना एक बार से ना सिद्ध हो सके...अनंत बार उतरना पड़े...गहन...गहनतम उतरना पड़े...तब कहीं जा के उस युगों की तपस्या का अंतर्निहित स्वरूप उजागर हो सके और जब एक बार उजागर हो जावे तो स्वतः रसातुर बार बार कई बार उतरना हो जावे...और जब ऐसा अनंत बार हो जावे ना तब जान पड़े कि भीतर तू थी ही ना री...तब कारुण्यरस भरने लगे और करुणा जागे...कैसी करुणा...?
सखी...करुणा जिससे तू हिय में अनंत जन्मों के रसपिपासु का बोध कर अपनी अंतरात्मा को नेक रसबुहारन से उसकी क्षुधा हेतु स्वयं को भूल कर कहे... ... ...आह...जे तो मैं थी ही ना...ना थी कबहुं री...
अहा...तब रस बरसे...स्नेह से करुणा भर जावै और बस भीतर ही भीतर उस रस की संवारन बुहारन करते करते एक दिन रसिकशेखर की रूपरसराशि सुधा की अंतरंग भावभंगिमा निखर उठे री...और उसकी पिपासा हेतु विदग्ध हो कर करुण्यरस से भर जावै... ... ...और बस तब भीतर निहारना ही एकमात्र जीवन होवे...एक ही अभिलाषा कि क्या कर अपने हियप्रसून को ऐसा सजाऊं...ऐसा सजाऊं कि... ... ...आह...खुद को बिसर जाऊं...नव दुल्हिनी सी पियसुखरूप संवर जाऊँ...अहा...
सखी...यही तो होता ना जब मुझ जैसी...तुम जैसी अनंत सुधा की बूँद की किंचित छुअन से मात्र भीतर निहारतीं...री करुणा से भर जातीं...जैसे बहती रससुधा में कर भिगोकर जल का छींटा स्वयं पर वार लिया हो...
...तो सखी...ये पियप्यारी स्वामिनी कृष्णाकर्षिणी प्रियांगिनी संगिनी तो अति भोरी किशोरी करुणानिधि तो प्रियतम हित स्व को बिसार ही चुकी और अति करुणाशील रस सागर ही हो चुकीं...रससुधा अनंत रसस्रोतों का श्रृंगार करती रहतीं पियहिय की रसतृषा हेतु...अति करुण...अपार करुणारससिन्धु री...अहा...भीतर क्या निहारी...बाह्य को बिसार भीतर ही रमण करती कृष्णरमिणी हो बैठीं...
सखी...प्राणवल्लभिके ने जब हिय निरखन सौं प्रियतम को तृषित क्षुधित जाना तो स्वतः स्वरूप विस्मृति से प्राणवल्लभ को रसानुभूति हेतु रसवपु रसदेह धारण कर द्वैरूप तें सज धज बैठीं...
हा...करुण्यरससिन्धुसारा किशोरी विदग्धा प्राणनाथ को सुख देने हेतु दुल्हिनी सी प्रियतम समक्ष रससुधा का पान कराने हेतु सुसज्जित भीतर हिय में निहारतीं तो उन्हें प्रियतम के ही होने का व उनकी रसातुर तृषा का भान रहता और स्वयं को बिसार प्यारे को नित नव रसपिपासित नव रसीली रूपमाधुरी का पान करातीं हैं... ... ...
सखी री...ऐसी कारुण्यरस की सुकुमारी कोमलांगी प्रतिमा श्रीलाड़िली जू कि लाल हित सर्वकामनाएँ उनकी प्रियतम सुख हेतु ही होतीं हैं...उन्होंने अपने हियमंदिर को प्रिय प्रेममुर्ति से ऐसा उघारा कि स्वसुख बिसार प्रियतम को ही जीने लगतीं हैं कभी रससार होकर...तो कभी विदग्ध होकर प्यारी जू अनंत रसलहरियों का संचार संचालन करतीं ना अघाती...नित नव...नव तृषा हेतु नित नव...नव रसश्रृंगार...अहा...
कभी प्रियसुख हेतु स्वामिनी हो जातीं हैं...पियसहचर को चरण सेवा प्रदान कर सुख देतीं हैं तो कभी उन हेतु रसवर्धक मान धर मानिनी हो जातीं हैं...नित नवीन करुणा री नित नव निर्मल सहज प्रेम की कारुण्यरस की सुंदर सुशील सर्वरसस्वरूप पियहियमणि श्यामा जू... ... ...
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!

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