"बसंत-रंगहुलास"
सरस सघन रतिरंगकेलि...भाव-4
"जोरी विचित्र बनाई री माई काहू मन के हरन कौं।
चितवत दृष्टि टरत नहिं इत उत मन वच क्रम याही संग भरन कौं।।
ज्यौं घन दामिनि संग रहत नित बिछुरत नाहिंन और वरन कौं।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी न टरन कौं।।"
सखियाँ नवबसंत दूल्हु दुल्हिन पर वारि बलिहारि जातीं हैं और मंगलगान करतीं अपने नयनों में उतर रही रसीले रसीली जू की अद्भुत रसझाँकी का अवलोकन करतीं अत्यधिक साक्षीभाव से आत्मविस्मृत और आश्चर्य चकित भी हैं...
सखियों के हियकंवल श्रृंगाररस में भीगे हुए हैं और वहीं सम्पूर्ण निकुंज भवन पियप्यारी की रूपमाधुरी का पान कर क्षुब्ध...ऐसे में प्रियतम श्यामसुंदर के हिय की रसलोलुप्ता का बखान कैसे हो...प्रियतम श्यामसुंदर के रोम रोम से जैसे बासंतिक नन्ही नन्ही कलियाँ फूट फूट पड़ती हैं जैसे प्यारी जू ने इनका माधुर्य श्रृंगार अपनी तुलिका से कर दिया हो...प्रतिअंग प्रिया जू की गहनतम रसीली छाप और उसमें भरा मधुर मकरंदरस जिसकी महक स्वयं प्यारी जू के अंगप्रत्यंगों की सुवास से जीविका पाकर भीतर समाती जा रही हो...जैसे प्रिया जू का नहीं अपितु प्रियतम का ही रसश्रृंगार प्यारी के करकमलों से...अहा...और श्रृंगार करतीं प्यारी जू प्रियतम के रंग में ढलतीं ढलतीं ढल रही हों...
जैसे चंद्र रात्रि का श्रृंगार चाँदनी छिटका कर करता और चाँदनी चंद्र का श्रृंगार रात्रि के आगमन में करती...कौन किसमें किससे प्रज्जवलित हो रहा कोई भेद ही नहीं...जैसे घन घन में समा जाए और दामिनी दामिनी पर गिरे...रसवर्षण होगा ही...कौन किसके हित...इसका बोध ही छूटा हो...और कभी यमुना के श्यामल रूप को निहारी हो सखी...
अहा...ये लहरें श्यामवर्ण से उठतीं पर जब तीव्र गति से मिलतीं तो गौररूप...अद्भुत लगता होगा ना...मंद मंद तो श्यामल श्यामल...पर तीव्र होकर गौर ही गौर...तो कौन किसमें किसके लिए सज रहा इसका भान ही कहाँ...
श्यामा जू का श्रृंगार सखियों ने किया श्यामसुंदर सहचरि रूप से...और श्यामसुंदर का श्रृंगार प्रिया जू ने किया...उनमें खो कर...तब कौन कहाँ किसका श्रृंगार कर रहा सखी...श्यामा जू कर रहीं प्रियतम का...एक मात्र रसदृष्टि कि प्रियतम पूर्ण रुपेण बसंत से खिल गए जैसे प्यारी जू ही हैं...
...और ऐसा नहीं है कि केवल प्रियतम का श्रृंगार हुआ...ना...ना री...साँचो श्रृंगार तो प्यारी कौ ही हुयो ना...हाय...
निरख...निरख तो री...प्रियतम हिय में श्रृंगारित श्यामा जू को निरख री...यहाँ बसंत खिला...तो वहाँ मकरंद भर भर कर ढुरक रहा...
प्रियतम को अपना श्रृंगार धरा कर प्यारी जू इतनी उन्मत्त हो रहीं हैं...रस से सराबोर...कि क्या कैसे कहूँ...प्रतिरोम बसंत की गोद में खिले कुमुद का मकरंदरस हो रहा...और इसका रसपान करने हेतु प्रियतम हिय भ्रमर हो क्षुधित निहार रहे अपनी श्रृंगारिका को...
अब बता कौन किसका श्रृंगार किया है...हाँ...परस्पर में परस्पर का नहीं री...परस्पर स्वयं का...स्वयं का...हाँ स्वयं का...कैसे...
प्यारी जू का सुख प्रियतम...है ना...तो उन्होंने स्वयं को प्रियतम कर लिया है और प्यारे जू को सजा दिया...उनके रोम रोम को प्यारी रूप ताकि प्रियतम को प्रिया जु से अभिन्नता रहे...और अब प्रियतम का सुख प्रिया जू ना...तो प्रियतम प्रिया जू को सुख देने हेतु श्रृंगाररस में प्रिया नयनन सौं निरखते प्रिया हो चले...तभी तो प्यारी जू को प्रियतम से अद्वैत होगा...तो स्वयं स्वयं को सजा रहे...एक कुमुदिनी तो दूसरा मकरंद...ऐसे अद्भुत युगल कि पल भर की भिन्नता नहीं हिय समाती...सो सदैव समाए रहते प्यारी प्रियतम स्वरूप प्रिया में और प्रियतम प्यारी रूप प्रियतम में...मिले मिले अनमिले हो जाते...युगों तक प्यास गहराती रहती फिर प्रियारूप प्रियतम का श्रृंगार करने हेतु और प्रियतमरूप प्रिया जू का...आह
तो वास्तविक श्रृंगार कहाँ हो पा रहा...प्रियतम बसंत सम खिल रहे और प्यारी प्रियतम के बासंतिक श्रृंगार के रसरंगों में भीगकर सज संवर रहीं...अहा...
बसंत खिलते खिलते कब होरी के रंग बहक कर बिखर उठते...तत्क्षण...तत्क्षण जैसे ऋतुपरिवर्तन ना...
सच...विचित्र जोड़ी री...जिन्हें रसिक रूप हो ही वृंदावन निहार पाता और उनका लाड़ सिंगार भी करता...बलिहार...ये वृंदावन की धरा की और यहाँ की रजरानी के रंगमंच पर रचेपचे रसिक संतों की...जयजय...
सखी प्रियालाल जू अतिशय कोमल वेदी पर फूल फूलनि से सुसज्जित अपने रसभावों का हार पिरो रहे हैं...वरमालाएँ...
वरमालाएँ...एक तो जो सखियों ने पिरो रखीं हैं युगल ब्याहुला हेतू...एक असीम सुंदर रसभीनी रसमालिकाएँ जो प्यारे ने प्यारी जू के लिए और प्रिया जू ने प्रियतम के लिए...
सखी...ये मालिकाएँ परस्पर सुवास सिंगार से सींचित रसमालिकाएँ हैं...जे जो प्रियतम पहनाने जा रहे ना प्यारी को जे उनके रोम रोम में खिले बसंत कुमुदों की माला है...जे प्रिया जू के मिलन सुभावों का मधुर रस में गुंधित हार है जो प्रियतम प्यारी जू...
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