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मैं ना हेरूं , रँग भाव संगिनि जू

*मैं ना हेरूं*

मैं ना हेरूं री...मैं ना हेरूं...
सांची री...मोहे ना निहारनो...ना री...ना निहारनो...
पर कब तक...कब तक आँख मिचोलो खेलूं...कब तक अखियाँ चुरावूं...कब तक ना नैंन मिलाऊं...कब तक ना होरि रस पेलूं...कब तक ना रंग सुरंग सुरति रस के झेलूं...आह... ... ...
आलि री...जे तो निर्लज्ज भयो...नित नव निर्लज्जता करै...और ऐसी...ऐसी कि...सैंनन बैंनन की ओढ़ किए तें भी कजरारे रतनारे चंचल नैंन भिड़ जावैं री... ... ...
तब की तो का कहूं...कैसे बर्णन होवे...
सखी री...जे हिय मनचोर हियें तें ही कब्जो कर लियो...और जे हिय भी यांकी जागीरी तांई मोहे बिसार दियो री...
यांसौ जाये मिलै...
नैंन मिलें और जाये समावै...
अटपटी मनमानी करै री...
मोहे ना कोस...
मोहे ना कोस...
...री निठुर...जे यासौं प्रीति लगाए के यांके तांई धकधक धड़कै...
सखी...कितनो चुराह्यौ...पर जे नैंन जाये मिलै री...और जबहिं मिलै तबहिं निगोड़े पलक गिरानो बिसार दें...पलक गिरनो तो बिसरी...जे मनचोर मुस्कियाइ जावै री...और जे मुस्कावै तो शर्मीले अधर सिहर कर सिल जावैं...लचीली ग्रीवा तनिक कहनो का चाह्वै पर यांकी स्वाश्न की सरगर्मी तें मौन धरी रह जावै...
कंठन सौं फूलमाल सरक जावै री...हाय... ... ...तब जे ढीठ और मनमानी करै और... .... ...और हियशय्या तें कुमुद खिल कर महक उठैं री...चुनरी सरकते देर ना लगै...पर यांके नैंनन सैंनन की चोट और गहरावै...उर तें बंधी फरकीली कमरबंध सहज ढीली पड़ जावै री...मीन की दृष्टि चेंप सौं बावली हिलोर खावै...कटि करधनी की किनकिन सौं हिय डरपावै सखी री...अब का करूं...कैसे न हेरूं री...
किंचित बरौनिन की झपकन तें निबिं बंधन सगरे छूटें...पर जे तिरछी नजरिया के बाण री...आह... ... ...
बाण री...गहरी कमान सौं छोड़े जु सूधो जाए कै कंचुकि बंध छुड़ाए दे...हाय... ... ...
जे लगा...जे लगा री...तबहिं लाज लुटती देख यांके हिय सौं लिपटनो ही चाहूं कि रसिक सिरोमनि नूपुरुन पायजेब के मीठे सोर सम वंसी बजावै और चरनन की जावक की सोभा निरख एकहि वार तें सगरी निंदिया चुराए लै जावै...ढुरक जावै नखप्रभा तें और कहै...
ना री...ना सजनी...मैं कछु ना कियो री...तेरी सों...
आह... ... ...
ऐ री सखी...यांकी जे भोली मक्खन में भीनी सी रसीली चपल वाणी सुन...
वाणी सुन री...हाय... ... ...
लाज के मारे किंचित अधर मुस्कियाइ जावै री...हा...होस खोए जावैं...
बस...बस...इतनो ही री...बस इतनो ही...इतनो ही निहारनो होवै के जे हिय तार तार हुइ जावै...पिघल पिघल जावै...यासौं लाड़ लड़ावै...और याकीं मस्तानी चाल सौं हार मान...कारे कजरारे अनियारे रूप सुधा रस सौंदर्य माधुर्य पर बलि बलि जावै और तृषातुर नैंनन की रसीली घातों से घातें खाये कै रोम रोम तें मधुसूदन मधुकर नैंन बिंध जावैं री...आह... ... ...
प्यारी सुकुमारी चिरसंगिनी के प्रतिलोम प्रियतम के रसछबि छुधित अगिनत नैंन...अहा... ... ...मैं ना हेरूं री...मैं ना... ... ...
"पति विपरीत रतिदायिनी,पति नित करनी निहाल।
वल्लभ सोक निवारिनी,वल्लभ उर वरमाल।।
अलि मंडल मंडन सदा,सुरति सिन्धु कल केलि।
स्यामल अंग तमाल तरु,सोहनि कंचन बेलि।।"
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!

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