"बसंत-रंगहुलास"
सरस सघन रतिरंगकेलि...भाव-5
... ... ...प्यारी जू के सुकोमल कंठ में धारण करवाएँगे...और जे प्यारी जू के करकमलों में रंगीले रसीले प्रियमत के मकरंद क्षुधित हिय कंवलों का हार...अहा...जिसे प्रियतम स्वयं आतुर हो रहे कंठहार बनाने को...
"भीजन लागे री दोऊ जन।
अँचरा की ओट करत दोऊ जन।।
अति उन्मत्त रहत निसि वासर राग ही के रंग रंगे दोऊ जन।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा प्रेम परस्पर नृत्य करत दोऊ जन।।"
अब तो जैसे दोऊ रसाधीन रसलोलुप रसपान हेतु परस्पर रंग में रंगने को आकुल व्याकुल हो रहे री...
रसबांवरे से...जैसे विस्मृतियों में डूब रहे...पहली विस्मृति कि संग सखियाँ हैं और तनिक इनकी स्वविस्मृति को निरख...बूझ ही ना पा रहे कौन किस रंग में रंग ढल कर कौन में डूब रहा...स्वरसपिपासु डूबने को लालायित...
सखियाँ इन्हें इनसे बेहतर जानतीं तो रसमालिकाएँ पहनाए पहनाए इन्हें सघन कुंज में ले जातीं हैं जहाँ अति ही सुघड़ सुंदर सिज्या सजी है जिसका बोध युगल को तो नहीं है पर सखी...यहाँ पहुँच कर तो पियप्यारी परस्परता का तानाबाना भूल...अनंत आनंत रसखिलित रंगीली कलियों के मध्यस्थ रंग चुके...कुमुदनियों के रंग में रंगी कुमुदनियाँ...सब अंतर मिट चुके...मिट रहे...और मिटते ना अघाते...रंग रंग में मिले...अनंत रस घुले...कौन कौन में समा रहा और कौन किसे रंग रहा...कोई भेद ही नहीं...
यहाँ पुष्पों की मसलन सिमटन से रंग न्यारे हो बिखर रहे तो वहाँ पुहुप वर्षण...अहा...रसकीच सी मची और रंगहुलास हुलस पुलक रहे...
"डोल झूलत बिहारी बिहारिनि पुहुप वृष्टि होति।"
उमड़ उमड़ कर अबीर गुलाल के झोंटे री सखी...घुमड़ घुमड़ कर कस्तूरी चंदन घुल रहे...रतिरसरंगकेलि में प्रियालाल जू परस्पर प्रीति की न्यारी रीति में रंग रहे...अहा...
सखियों ने विभिन्न रसझारियों में पियप्यारी की रुचि व सुखानुरूप रंग बिरंगी कलियों से सिज्या का भी अद्भुत सिंगार कियो है री...अनंत रंग प्रेम होरी के...अनंत राग जे दोऊ फूल फूलनि के... ... ...
भर भर कर ढुरक रहे...रंग रहे एक रंग में...गहन...गहन...गहनतम...श्रमजलकन भी रसरंगे...और क्षुधित...क्षुधित...क्षुधित हो रहे क्षुधा से...तृषा से...श्रमित नहीं...अह्लादित...अह्लादित...अह्लादित...क्षणिक नहीं...सदैव से सदैव के लिए...अलौकिक...पारलौकिक...अहा...
शुभा...हा...हा...पुकार उठती...प्रियालाल जू और छलछला उठते...और ढुरकते...सिमटते...भरते...और मकरंद रंग घुलते...मिलते...सिहरते...और...और...और... ... ...
सखियाँ और अरगजा अबीर मिलित चंदन कस्तूरी पवन में बिखरा देतीं...क्षण प्रतिक्षण गहराते रंग...बसंती फूल फूलनि के गहरे न्यारे होरी के अनंत रंग...रंगीले...रसीले...सरसीले...सजीले... ... ...अति गहन...अति सुंदर... ... ...
एक समय रहा सखी...जब प्रिया जू प्रियतम तो प्रियतम प्रिया जू में डूबते...पर अब कब नीलाम्बरा पीताम्बरधारी या पीताम्बरधारी नीलाम्बरा हो जाते और सम रस सम वय्स हुए कैसे रंग में कौन ढल रहा या ढाल रहा...अबोध सी निरख रही री...
सच...होरी और होरी के रंगों में सुसज्जित ये श्रीयुगल...अंग अंग रंग रंग...या रंग रंग अंग अंग...अति सरस गहन रस रसिया व रसीली जू की...
स्व को भूल सुखरूप हुए...स्व हेतु...परस्पर...या सखियों के लिए...नाए जानूं...पर...पर रसिक की बातें रसिक ही जाने...प्रेम की घातें प्रेम ही जानें...बसंतोत्सव रंगोत्सव में रंगीला रसीला हो चुका...अहा...
विस्मृतियों के आवरण तले विस्मृत दो रंग रसरूप हो बह रहे...डूब रहे... ... ...
"रुचि के प्रकास परस्पर खेलन लागे।
राग रागिनी अलौकिक उपजत नृत्य संगीत अलग लाग लागे।।
राग ही में रंग रह्यौ रंग के समुद्र में दोऊ झागे।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी पै रंग रह्यौ रस ही में पागे।।"
और जानै है...जे रंग जितनो चढ़ै ना उतनो गहरावै...और ऐसे गहरावै कि और गहरावै के निज प्यास बढ़ती जावै...पल पल बढ़ती तृषा...और रंगने की पियरस में...गहरी तृषा...ऐसी सखी...
कि...कि तुम मैं हो जाऊँ और मैं ना रहूं...जे होते होते ना होवै...पलहुं एक भये...दूजे ही पल विहरित...आह... ... ...
रंग झीने होते जावैं पर रस गहरावै री...इतनो गहरो...इतनो गहरो...कबहुं लगै मिले क्यों ?
और पल मैं लगै बिछुड़े काहे...
कबहुं मिले ही ना जैसे...
अब इस रंगहुलास की रंगीनियों में रंगे स्वतः विस्मृत हो जावै अपनो रंग...बस...बस रहे तो अनंत तृषा...अनंत प्यास...युगों से...युगों की...युगों तक...
अब कहाँ अंत इस प्रेम का...
लगता आगाज़ ही नहीं हुआ...
बखान करूँ तो तीव्र उत्कण्ठा ही प्रेम...
तीव्र उत्कण्ठा...
... ... ...विशुद्ध प्रीति की विशुद्ध व्याकुलता सखी री... ... ...
बखान करूँ तो बखान का अंत नहीं...
और निरख सकूं...ऐसा सौभाग्य नहीं...
और कि एक बार निरख कर डूबी रहूं...
सखी बार बार उतरने का मन होता...बार बार डूबने का...
और फिर विचलित विहरित...
आह निकलती हिय से...आह... ..
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