"बसंत-हुलास"
सरस सघन रतिरंगकेलि...भाव-1
अहा...बसंत आयौ री...री...निरख तो जे बसंत आयौ री...
सखी मुख से फूलनियाँ झरा रही है और निरख निरख पुकार रही है अपनी सखी को...पर ना जानै जे कहाँ किस बसंत में खोई है री...सखी के मुख से निर्झरित पुष्प यांके हियकवंल से छूकर चरणों में गिरकर सखी के आँचल को रसमय कर रहे हैं...अहा...
सखी फिर से उच्च मधुर स्वर से बोली...पर जे बीर ना सुनै यांकी वाणी...नयन निहार रहे और कर उन वाणीरस में झर रहे पुष्पों का स्पर्श कर रहे...खोई सी...कर पकड़ सखी को संग बिठाए रही...
और दो ही शब्द कह फिर मौन है जाती...
जे शब्द जैसे एक महक में भीगे हुए से सखी को अन्यत्र कहीं बसंत निहारने से रोक दिए और वहीं बैठ गई...
जे कही..."सांचो बसंत री रंग रह्यौ"...अहा... ... ...एक मौन सा पसर गया वाणी में और उस बसंत में भी जिसकी रट सखी लगाए रही...जाने ऐसा क्या दिखाए दियो कि बसंत बिसर गयौ...
जाद रह्यौ...स्मृति पटल तें खेलतो एकहु रसरंग री...रंग हुल्लास कौ बसंत...और जे रस में भींजे रीझे बासंतिक उज्ज्वल रंग...अहा...
सखी री...बसंत तो यहाँ खिल रह्यौ...यहाँ पियप्यारी जू की रूप माधुरी कौ सलोनो सो अति अनियारो सुघर सुंदर लजीलो सजीलो बसंत जो प्यारी के नखों से प्रभामंडल की रसीली छटा से भीगा भीगा उनके शिख तक के सिंगार का बखान मुख से ना कर पा रहा अपितु नयनों से पी रहा...अधरों से निरख रहा...और महक महक कर प्यारी की अनंतनाग उज्ज्वल रसछटा से भिगो रहा सखियन के करकमलन को और मुग्ध चंचल पियहिय को जहाँ बासंतिक फूलनियाँ मकरंद सम मधुर गिर कर सिहरन से बसंत को सरसरा रहीं...अहा...
लाल कंचुकी पर नीली साड़ी और हरी ओढ़नी ऐसी फब रही जैसे प्रेम...प्रेमावरण के रंग घुलमिल गए और परिणामतः मधुर सरसीली हरितिमा हरितिमा के परिधानों ने रंगीली सरस प्रेम से भीगी कमलिनी के सजल सुरीले मकरंद को मात्र समेटने का प्रयास किया हो पर उसकी आभा छटा ऐसी कि समेटे ना सिमट रही...अब भला...धूप खिली हो तो लाख सघन वृक्ष प्रयासरत हो सूर्य को ढंकने के लिए...छनछन कर भी धूप अधिक आकर्षक उज्ज्वल हो जाती है...
अहा...ऐसी ही सिमटी सिमटी प्यारी जू को प्रियतम निरख रहे और प्रति हरे परिधान से याचना कर रहे...किंचित सरकने की...
अब पिय मन की बात पियममवासिनी ही समझे बूझे ना और जो प्यारी हिय की अनुमति वैसे ही सखियन की चाह चहके महके...तो सोलह सिंगार सजातीं सखियाँ सिंगार धराते धराते सरक सटक जातीं हैं और प्रियतम जैसे रसझारियों की थिरकन फुरकन से प्यारी जू की रसपगी उज्ज्वल छवि का दरस कर पाते हैं...
" कुच गड़ुवा जोवन मोर कंचुकी वसन ढाँपि लै राख्यौ बसंत।
गुन मंदिर रूप बगीचा में बैठी है मुख लसंत।।
कोटि काम लावन्य बिहारी जाहि देखत सब दुख नसंत।
ऐसे रसिक श्रीहरिदास के स्वामी तिनकौं भरन आई मिलि हंसत।।"
पर प्रियतम को यूँ प्यारी निखरन में तृप्ति ना होवै...रीझ रीझ अकुलावै है...
प्यारी के अंग सुअंगों पर मनभाविनी सखियाँ एक एक कर सेवायित हैं...कोई एक कस्तूरी कौ मर्दन करै...तो दूजी चंदन सौं सिंगारै...एक पुहुप चुन चुन हार बनावै तो कोई जावक सुंदर सजावै...प्रियतम इन सबकी अति सुकोमल गतिविधियों को निरख निरख रीझे पड़े हैं और हिय में एक ही कामना लिए सगरी सखियन सौं विनती करैं हैं मन ही मन कि प्यारी की जे सेवा मोय दे दे सखी और सखियाँ प्रिय की ऐसी मधुर सेवाओं की चाहना पर ही लुटी लुटी जातीं हैं और प्रानप्यारी की रसानुभूति का बखान ही ना होवै री...
'जोई जोई प्यारो करै सोई मोय भावै'
प्रिया जू तो पियहिय में ही जैसे सिंगार पवा रहीं...उन्हें तो प्रियतम सन्मुख सखियन की उपस्थिति का बोध ना होवे री...प्रियनयनों की चंचलता से खुद रसीली सखियों के हिय के भाव सुभाव ऐसे भये कि प्यारी कौ सरस सिंगार वे ना धरा रहीं अपितु चंचल नयनकोर से झरतीं प्रिय की सुकामनाएँ ही सखी रूप विराजित भईं...
सच...प्रिया जू कौ सिंगार प्रियतम ही धरा सकें ना और जे सहचरियाँ तो रसपिपासु की रसापूर्ति हेत ही अनंत होकर प्रियहिय की करावलियाँ ही हैं...अहा...
अब तनिक निरख तो जे बसंत सखी...जहाँ प्रियतम ही अनंत सहचरिन के रूप में प्यारी को सिंगार धरा रहे...हाय...कर कंपित स्वर भंग पिय के...
कोमलांगी के कुचकंवलों पर कस्तूरी महक पियअधरों से झर रही भावपूर्ण...ललाट पर चंदन पियहिय से सुसज्जित...प्रतिरोम मकरंदरस छलका रहा और स्वर्णिम आभा छिटक रही प्रिय पर...अद्भुत सिंगार दरसन...पिय हिचक झिझक जाते वहीं प्यारी जू फूलनि सी सिमट सिमट जातीं...अहा...जे सब तो अनियारे रतनारे कजरारे कारे नयनों की चाल है री...निर्ल्लज निरख रहे और स्वाभाविक प्रीतवर्षण कर रहे...
अरी...प्यारे जू तो दूर से निरख ही रहे ना और प्यारी उन्हें बड़े पास से भावावेशित हुई सिमटती छुईमुई सी लजा रहीं...
रसदेह को महक से सजाया तो उधर जैसे प्रियतम की नासिका महक के लोभ से मृग हो आई...बसंती नील सुपीत रसमृग...अहा...
क्रमशः
Comments
Post a Comment