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विदग्ध माधवे 3 , संगिनी जू

दुल्हू दुल्हिनि का सरस सहज सिंगार निरखी हो ना सखी...अहा...मधुर सिंगार...लागै ना...ज्यौं परस्पर सुखरूप ही सुसज्जित भये...क्या विवाह वेदी पर बैठने से पूर्व कोऊ नार यूँ सजती री...क्या कबहुं सुनी कोऊ मंगलगान करै बिनु दुल्हादुल्हिनि...नहीं ना...
ऐ री...कैसा विशुद्ध सरस प्रेम व्यापै ना जो सजीली दुल्हिनि को सुहागिन कर देवै और जे सुहाग नितनव सुंदरतम संवरे निखरे...क्या स्वरूप सरूप की न्यारी जे खिलावट सजावट स्वहितु होवै री...हाँ...होवै है...तनिक प्रगाढ़ता में उतर और निरख...
जे सरस सहज सिंगार सुहागिन का कहीं ना कहीं विदग्धता ही दरसावै री...एक कुंवरी जब प्रोढ़ा होवै ना...तब तें सजनो संवरनो चाहै...नित निखरे नित बहे री...पर तब ये मन की चंचलताएँ ही संवारती...स्वतः भीतर अंतर्मन में अपनी उस विदग्धता का पोषण ही कर रही होती ना...
पर सखी...यांकी जे खोज अनंत अथाह रसों को छूकर कब उत्कण्ठा हो जाती...वह स्वयं भी ना समझ पाती...तब उस प्रोढ़ा को दुल्हिनि सा सजाया जाता...एक बार ही ना...पर सखी वह नित संवरी थी जिसके लिए आज भी संवरती...और अधिक संवरती...नित नित संवरती...संवरती ही रहती...जे स्वसिंगार उसका...उसे विदग्ध करता रहता...क्या सुंदर दिखने हेतु...या स्वसुख इसमें...
ना री...वो बार बार सिंगार धरती अपने हियपिय के लिए...उसे रिझाने के लिए...नित नव दुल्हिनि...नित नव विदग्धा हो उठती...इस विदग्धता से छूटना जैसे उसके वश की बात ना हो...गहनता से अपने प्राणों को सजाती...किस हेतु...
हेतु एक ही री...प्रियतम की सुखलालसा उसे नित्य विदग्ध बनाती...नित्य नव पिपासा संग नित्य नव बहती वो...कि तनिक प्रिय को रिझाती वह उसकी तृषारूप उसे सुख प्रदान कर सके...स्वयं को विस्मृत कर वह पियहियमणि सी दमकने लगती...
घन दामिनी का मिलन...
नहीं...चंद्र और चकोर का...
झरने फूटते देखे कभी...
क्यों फूट पड़ते वे पहाड़ों की शीतलता जड़ता से और कैसे...
क्या विदग्धता यह उनकी...
शीतल घनों में दामिनी कैसे कौंध जाती...
और रसनिर्झरन होते होते भृकुटि विलास कैसा...
यह सब दग्धतावश ही ना
ना री...
मंद मंद बहती हवाओं में भवंडर क्यों उठ पड़ते...
और नदियों के मिलन से सरस लहराते सागर में वो गहराता भंवर...
अच्छा...लावा फूटते देखा कभी...
...कितना गहन सुलघता रहता...सुलघता ना...गहन गहन गहनतम...मंद मंद तपित धरा इस तपन से भी शीतलता का अनायास ही सुख पाने लगती...जैसे ये सुलगना ही जीवन हो रहा ना...पर तभी लावा फूट पड़ता...और शीतल धरा को तप्त हिय की चपेट में लेकर...विदग्ध हो उठता...कि ये शीतलता...सरसता...सहजता...कहीं धरा के पोषण को ना रोक दे...सो लावा धरा की गहन पिपासा हेतु फूट पड़ता और पी लेता उसकी तमाम शीतलता को...और...
और सखी...जब यह शीतल हो शीतलता में समा जाता ना...तभी विदग्धत्व रसापूर्ति अतृप्ति में बदल सजग हो कर शीतलता को भी सहलाती रहती...
"आवौ लाल ऐसे मद पीजै तेरौ झगा मेरी अंगिया धरि।
कुच की सुराही नैननि के प्याले दारू द्यौंगी यौं अंकौ भरि।।
अधरनि चुवाइ लेउ सब रस तनिकौ न जानि देउ इत उत ढरि।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी सुहबति असर जहाँ आपुन हरि।।"
हाँ री...श्यामसुंदर प्राणपोषिणी श्यामा जू भीतर विदग्ध ही री...प्रियतम हिय की कितनी गहरी प्यास...ये विदग्धा दग्ध होकर ही जान पातीं और खोजती रहतीं कि कहाँ प्रियतम वह सुख पाएँ जिससे विदग्ध प्रियतमा को तुष्टि संतुष्टि हो सके...पर ऐसा पारावार...ऐसा कहीं कीऊ अंत होता ही ना री...और प्यारी जू विदग्धमाधवे हो अतृप्त ही रहतीं...उनके अंग प्रत्यंगों से...प्रतिलोम से बहता विदग्धरस प्रिया जू को प्रियतम हेतु सिंगारित करता रहता...बाहर प्रियतम विदग्धता का स्वरूप बनाए विहरते रहते तो भीतर श्यामा जू स्वयं दग्धता में विहरती रहतीं...
प्राणपोषित करने वाली विदग्ध हियपिय के प्राणों में रससंचार बन रसपान कराती भी...और दग्धतावश करने से खुद को रोक भी नहीं पाती...क्यों...
...तो इस रसविदग्धमाधवी की दग्धता से ही प्रियतम के रस का सरोवर भरता भी रहता और छलकता भी...जीवन प्रदाता होकर रस का सेवन करती और रस का संचार भी...अहा...प्राणपोषिणी...प्राणहरणिका भी हो उठती...जिससे प्रियतम को प्रगाढ़ता का पान करने में अधिक आकर्षण हो आता...और वे विदग्धमाधवे की अनंत अतृप्ति से तृप्त होते होते भी अतृप्त ही रह जाते...अंत ना इस अनंत रसविदग्धताओं का जिन्हें प्रिया जू प्राणप्रियतम हेतू नवपोषण कर संवारती सजाती रहतीं और गहराती रहतीं...विदग्धमाधवे प्यारी जू... ... ...
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
जयजयश्रीहरिदास !!

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