Skip to main content

करुणापूर्णा श्रीप्रिया जू , उज्ज्वल श्रीप्रियाजु , संगिनी जू

"प्यारी तेरी महिमा वरनी न जाय जिंहि आलस काम बस कीन।
ताकौं दंड हमैं लागत है री भए आधीन।।
साढ़े ग्यारह ज्यौं औटि दूजे नवसत साजि सहज ही तामें जवादि कर्पूर कस्तूरी कुमकुम के रंग भीन।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी रस बस करि लीन।।"
हा प्यारी...हा किशोरी...हा करूणामई...प्रियतमसंगिनी...राधिका रसिकिनी लाड़ली जू... ... ...शुभा पुकार रही प्यारी श्रीश्यामा जू को अनवरत...अहा...
जानै है सखी...जे शुभा का जाने पुकारनो...पर याकें हियविराजित पियवाणी कौ रस घोल रही जे...स्वहेतु ना री...जे तो प्रियतम हेतु प्रिय के कहने पर ही पुकार रही करूणामई श्यामा जू को...हा...हा...पुकार रही...
अहा...निरख तो जैसे गईयनी कौ बाल होवै...अनवरत मईया कू पुकार पुकार कर पुकार रहा...बस...प्रेम पिपासा हेतु...और सजल करूण नेत्रनि गईयनी भी आतुर हो उठती बछिया की पुकार पर...और तुरंत वक्ष् से लिपटावै है री...जानै है याकों जही प्रेम व्यापै...
आलि री...जे शुभा भी कुछ ऐसे ही प्रेम पिपासित पुकार रही प्रिया जू को और प्रिया जू भी इसे निहार निहार सजल नेत्र कर आतुर हो उठतीं...
शुभा की प्रेम भरी पुकार में प्रियतम की रसमहक प्यारी जू को जैसे खेंच रही है और प्रियतम संग डाल पर बैठी प्यारी प्यारी पुकार रही...प्रिय ही जैसे समाए पड़े इसमें और चाहते श्यामा जू उनकी रसपिपासा को जान शुभा की पुकार पर उन संग आकर विराजैं...
कारुण्यरस की खान प्यारी श्यामा जू भी तुरंत कुंज से निकल शुभा को थाम प्रियतम संग आ विराजितीं हैं...अहा...
सखी क्या बखान करूँ प्यारी जू की करुणा का...महिमा वरनी न जाए...प्रियतम की पुकार तो प्यारी जू के रोम रोम में समाई रहती...तत्क्षण अभिन्नत्व और तत्क्षण अभिन्नत्व में भी विरह की रसधमनियाँ जैसे रसिक अनन्य उदार स्वामिनी जू के हिय का श्रृंगार हैं और इस श्रृंगार से सजीली वे प्रतिक्षण हियवासित प्रियतम की तृषा को निहार निहार तृषित क्षुधित होती रहतीं हैं और तत्क्षण करुणा का सुपात्र भर भर प्रिय पर उंडेलती हैं...
सखी...जे पियप्यारी जो शुभा की वाणी में सुन करुण हों उठ चलीं...इतनी करुणामई कि प्रियतम को रोम रोम में समाए हुए भी उसकी वाणी को प्रियतम की पुकार जानती हैं...उन्हें शुभा सुनाई ही ना आ रही...प्रियहिय की पुकार ही सुनाई आ रही री...तो चल देतीं हैं करुणरसमाधुर्या श्रीश्यामा जू पियहिय वाणी में डूबी शुभा पास...
हमारी प्यारी जू ऐसी भोली जो पी पी की पुकार सुन पी पी पुकारने वाले को ही हिय से लिपटा लेतीं...बलिहारी जातीं उस वाणी में भीगी रसीली हिय की न्यारी पिपासा पर जो पियातुर हो प्रिय प्रिय पुकार रही...तो सखी जब प्रियतम स्वयं पुकारें स्वामिनी जू को तो...तब तो क्या कहूँ...स्वसुद्धि बिसराई प्यारी जू प्रियतम हृदय का श्रृंगार हो बैठतीं...एक एक आभूषण श्रृंगार हो जाता करुणानिधिन का...पग पग पर करपल्लवों से प्रियतम के क्षुधित रोमावली का श्रृंगार हो जातीं हमारी प्यारी प्राणप्रिया दुलारी श्यामा जू...
रससुधा सिंधु...अपार प्रेम की अगाध घनीभूत करुणामई श्रीराधा...प्राणों में समाई रहतीं और जानतीं पियहिय की रसक्षुधित सरस रसीली सहज तृषा को और ऐसे माधुर्य वात्सल्य से उनका पोषण करतीं रहतीं जैसे श्यामसुंदर अति चंचल भ्रमर हों और किंचित प्यारी जू की महक भर से सराबोर उन्हें नयनाभिराम ताकते रहते...और करुणानिधि श्यामा जू उनकी इस शिशुवत रसीली सुघड़ पिपासित रसधारा के प्रवाह में शीतल तरंग बन प्रियतम का लालन करतीं रहती हैं...
सखी...एक रसकमलिनी की मकरंद सेज पर जैसे दो नन्ही नन्ही मासूम सी तितलियाँ रसाट्ठकेली में मनोहारी युगल निमज्जन कर रही हों...अबोध अभिन्नता सरसता उन्हें इतना रसमग्न कर देती कि कारुण्यरस में डूबीं वे कमलिनी को भी विस्मृत कर परस्पर रस में नवीन नवरस रंग में रंगी स्व को भी भूल जाएँ और जैसे तत्सुख रससंचार से नव श्रृंगारित हुईं हों...अहा...ऐसी करुणा में भीगे रससार प्रियतम प्रिया जू के स्वरूप में और प्रिया जू प्रियतम स्वरूप में एकमेक हो जाते...रसीली पियहिय की रसभरी किनकिन कुनकुन रसवाणी से प्यारी जू का हृदय सदैव पिछला रहता और वे नव नव रसश्रृंगार से श्रृंगारित प्रियतम को रसपान करातीं ना अघाती...प्रियतम प्रेम में रंगमगी प्यारी जू की ऐसी करुणा पर सखियाँ रीझ रीझ जातीं और उन्हें चिरकाल तक पियसंगिनी करुणरससारा श्यामस्वामिनी होने का आशीष देतीं रहतीं...अहा...
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात