Do not share ...
एक समय रहा सखी...जब प्रिया जू प्रियतम तो प्रियतम प्रिया जू में डूबते...पर अब कब नीलाम्बरा पीताम्बरधारी या पीताम्बरधारी नीलाम्बरा हो जाते और सम रस सम वय्स हुए कैसे रंग में कौन ढल रहा या ढाल रहा...अबोध सी निरख रही री...
सच...होरी और होरी के रंगों में सुसज्जित ये श्रीयुगल...अंग अंग रंग रंग...या रंग रंग अंग अंग...
और जानै है...जे रंग जितनो चढ़ै ना उतनो गहरावै...और ऐसे गहरावै कि और गहरावै के निज प्यास बढ़ती जावै...पल पल बढ़ती तृषा...और रंगने की पियरस में...गहरी तृषा...ऐसी सखी...
कि...कि तुम मैं हो जाऊँ और मैं ना रहूं...जे होते होते ना होवै...पलहुं एक भये...दूजे ही पल विहरित...आह... ... ...
रंग झीने होते जावैं पर रस गहरावै री...इतनो गहरो...इतनो गहरो...कबहुं लगै मिले क्यों ?
और पल मैं लगै बिछुड़े काहे...
कबहुं मिले ही ना जैसे...
अब इस रंगहुलास की रंगीनियों में रंगे स्वतः विस्मृत हो जावै अपनो रंग...बस...बस रहे तो अनंत तृषा...अनंत प्यास...युगों से...युगों की...युगों तक...
अब कहाँ अंत इस प्रेम का...
लगता आगाज़ ही नहीं हुआ...
बखान करूँ तो तीव्र उत्कण्ठा ही प्रेम...
तीव्र उत्कण्ठा...
... ... ...विशुद्ध प्रीति की विशुद्ध व्याकुलता सखी री... ... ...
बखान करूँ तो बखान का अंत नहीं...
और निरख सकूं...ऐसा सौभाग्य नहीं...
और
Comments
Post a Comment