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र से रस 2 , संगिनी जु

!!वृंदावन रज !!

स्वर मधुरिम आ रहा है !मधुर गीत प्रेम के कोई गुनगुना रहा है।महक उठ रही यहाँ की रज से क्षुब्ध जीवन को महका रहा है।कण कण में महक गहरे प्रेम की रज से पराग बन अंकुरित होती।नित नव पंकज खिलाती।पराग बन फिर खिल जाती।झर कर मकरंद कण बन मधुप भ्रमरों को नचाती।चरणकमल सुकोमलतम में बलि बलि अर्पित हो जाती।
वृंदावन रज !!
त्रिभुवन के सतरंगी रंगों से रंगी श्यामा श्यामसुंदर जु के प्रेम में पगी।छूते ही तन मन में गूँज उठती
हे प्रिया हे प्रियतम !!
वृंदावन रज से "र" को चुन लूं
ध्वनित संगीतमयी धराधाम से
रस प्रेम के रंग ले
दसों दिशाओं में बिखरूं

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