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र से रस 10 , संगिनी जु

!!विरह रूदण अश्रु !!
हे हरि मुझे उन गोपांगनाओं का मधुरतिमधुर क्रंदन रूदण कर दो जिससे वे तुझे रो रो कर सदैव पुकारती हैं।उनकी पुकार कर दो।रसिक हृदय की टीस की मधुर झन्कार बना दो जो सदा तुम में रमते हैं और तुम्हें ही पुकारते हैं।उनके अंतस की प्रीति की जोत श्रीयुगल के चरणों में सदा जगती रहती है और वे अपने रूदण को छिपाकर यूँ वृंदावन आनन कानन में विचरते हैं कि श्यामसुंदर उन्हें देख ही ना लें पर सदा उन्हें इस विरह रूपी दावानल में जलाते डुबाते ही रहें।उनकी इस करूण पुकार में भी अद्भुत प्रेम है जो उनके लिए मिलन से भी अधिक सुखद है।मिल कर भी बिछड़ना और बिछुड़न में भी सदा मिले रहना यही करूणा अपने प्यारे की इन विरही जीवों को युगांतरों जिलाए रखती है।देखने से दूर पर अंतस में सदैव प्रियतम से लिपटे हुए ये करूण क्रंदन रूदण करते विरही बड़भागी प्रियालाल जु की करूणा के पात्र उनमें होकर उनमें डूबे।अपने अश्रुओं से उनका पथ प्रक्षालन वाद्य अपनी देह का नहावन करते रहते।ऐसे प्रेमियों के श्यामा श्यामसुंदर जु भी बलिहार जाते हैं क्योंकि ये पल भर भी उनसे अभिन्न नहीं रहते।
हे प्रिया हे प्रियतम !!
मुझे इस विरही प्रेमियों के
हृदय अंतस के शुद्ध अश्रु कर दो
तुम जो कह दो तो
इनका करूण रूदण बन
सदा कुंजन में तुम्हें पुकारूँ
मिल कर भी तुम ना बिसरो
नेत्र गगरी भर
राह प्रिया जु की पलकों से बुहारूं !!

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