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र से रस 14 , संगिनी जु

!! श्रृंगार रस !!

श्री वृंदावन धरा धाम की गहनतम भावरसरूप श्रृंगार रस की दिव्य अति दिव्य रस परिपाटी जिसका वृंदावन से बाहर अनुभूत होना असम्भव भी और रसिक हृदय वृंदावन भूमि पर प्रियालाल रूपी सरस कृपा का सहज सींचन।सखी सहचरियों द्वारा किए जाने वाले अत्यधिक सुंदर पर बाह्य दैहिक और कुंज निकुंजों के श्रृंगार से परे एक गहन दिव्य श्रृंगार जो श्यामा श्यामसुंदर जु के हृदय की गहनतम भाव भंगिमाओं के फलस्वरूप उपजता है जहाँ तत्सुख भाव परस्पर इतना गहराता जाता है कि प्रिया जु का दिव्य श्रृंगार स्वयं प्रियतम श्यामसुंदर और श्यामसुंदर जु का श्रृंगार स्वयं श्यामा जु हो जाते हैं।परस्पर प्रेम में डूबे युगल रस में ऐसे भीगते हैं कि उनके श्रृंगार पूर्णतः एकरस होकर फिर बदल जाते हैं।आरसी इस रसश्रृंगार की तरंगों में ऐसी डूबती है कि बड़े कलात्मक ढंग से प्रिया जु को प्रियतम और प्रियतम को प्रिया जु ही परस्पर एक दूसरे में भरे हुए दिखते हैं।उनका अपना कोई भिन्न स्वरूप है यह मात्र एक बाह्य स्वरूप ही रह जाता है।ऐसे दिव्य गहन श्रृंगार रस की साक्षी सखियाँ व सुपात्र रसिक हृदय ही अपने विशुद्ध प्रेम रस में डूबे चिंतन कर पाते हैं जहाँ लाल जु प्रिया और प्रिया जु लाल जु की प्रियता स्वरूप श्रृंगाररत रहते हैं।
हे प्रिया हे प्रियतम !!
मुझे इस अनोखे श्रृंगार रस की
एक दिव्य झन्कार रूप
अनुभूति कर दो
तुम जो कह दो तो
प्रिया जु में प्रिय और
प्रियतम में प्रिया को निरखूं
सरगम के"र"शब्द में
अनूठा यह प्रेम रस श्रृंगार विरचूं !!

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