!! वेणु रव !!
व्याकुल मन की पुकार।एक वंशिका धुन छिड़ती आनंद में जब राधा जु और सखियों के प्रेम में डूबे मदनगोपाल उन्हें विश्रामित करना चाहते तब वे वंशी में मधुर तान छेड़ देते जिसे सुन सखियाँ व राधा जु रसमग्न होतीं।एक गहन वेणु रव बज उठता जब श्यामसुंदर जु अति व्याकुल हो अपने ही वस्त्राभूषणों से खिन्न होकर बांस की वंशी में राधा नाम पुकारते और इसमें प्राण फूँक इसे जीने लगते।वेणु वादन के समय श्यामसुंदर श्री जी अधर रस का चिंतन करते हैं।वेणु का राग श्री जी के अधर अनुभूति से श्यामसुंदर की अधर माधुरी को छू कर सप्त छिद्रों से प्रवाहित हो सप्त लोक को रस में डुबो देता है।अधर रससुधा पान करते वंशी के छिद्रों को एक एक कर दबाना छूना जैसे प्रिया जु के अंग प्रत्यंगों के माधुर्य को छूना।अधीरतावश वेणु रव गहराने लगता है और प्रियतम श्यामसुंदर वियोग की परिसीमाओं से श्यामा जु को पुकारते हुए अश्रु बहाने लगते हैं और तब वेणु श्यामसुंदर जु के अधर रस से पगी तीव्र उत्कण्ठा से श्यामा और श्यामसुंदर जु को एक से दो कर देती है।इस वंशी नाद से प्रिया जु अति व्याकुल होकर श्यामसुंदर जु के मुख से वंशी को हटा देतीं और उन्हें अधरामृत रसपान करातीं स्वयं वेणू हो जातीं हैं।प्रियालाल जु की परस्पर उत्सुकता की साक्षी यह वेणू रव धरा धाम की गहराईयों में सदा गूँज बनकर बहती रहती है।
हे प्रिया हे प्रियतम !!
मुझे इस वेणू रव की गहन
रसयुक्त"र" ध्वनि कर दो
तुम जो कह दो तो
हस्त अंगुरियों की छुअन से व्याकुलित हो
थिरकती सदा राधा राधा पुकारूँ !!
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