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प्रेम डगर चल दी पगली , संगिनी जु

प्रेम डगर चल दी पगली
नेम कर्म ना जानू कुछ
इश्क इश्क में बह गई
रीत बिपरीत पहचानु ना
राह फुलवारी पद पथरीले
उलझ उलझ थक जाऊँ
सरस सुराही में दो रंग जैसे
जल जल घुल जाती हूँ
प्रेम के पाले पड़ कर सखी
मैं श्याम रंग बन जाती हूँ

प्रेम कौ कहो कैसे तोलोगे
कितना गहरा कितना भीतर
आंक सको तो आंको प्यारे
बहती असुवन धार को
पुष्प तारे सब सजे चरणों में
हूँ काबिल तो अर्पित करूँ

नेह लगाया प्रेम भी पाया
देह को सजाया हिय ना बसाया
रोती रही निहार तुम्हें
मुस्करा कर तनिक सुख ना दिया
तुम निहार रहे कभी तो सहज रहूँ
दे दे कर सदा तुमने ही गहराया है

जीवन भर माँगा तुमसे
तुमको माँगा नहीं तुमसे
तुम देने को प्रेम आतुर रहे
मैं झोली कामनाओं की भरती रही
अब रोऊं क्यों लोक से नाता
अलोक तुमसे नहीं निभाया
चाहती तुमको तो नेह जग से क्यों लगाया

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