मोरकुटी रसलीला-12
जय जय श्यामाश्याम !!
अनवरत रस प्रवाह मोरकुटी की पावन भजन स्थली पर।समय जैसे ठहर सा गया है।सखियों के लिए ये पल हृदयांकित होकर स्थिर हो गए हैं ।श्यामा श्यामसुंदर जु अपलक एक दूसरे को निहार रहे हैं।मधु भरे नयन ऐसे चार हुए हैं कि स्वयं रस बरसाते स्वयं रसमग्न हुए दो अधीर मन व्याकुलतावश एकरस हुए हैं।परस्पर निहारते कानों से अनकहा सुनते नासिका से स्वगंध लेते मदमाए हुए और किंचित लहराते मोरपंख से मोरपंख की हल्की छुअन से रससार हुए मयूरी श्यामा जु और मयूर श्यामसुंदर।अद्भुत ठहराव गहन नृत्य क्रीड़ा में।
आसमान धरा जैसे एक हो जाने को आतुर।मोरों की चहचहाहट कोकिलों की कुहू कुहू पपीहे की पीयू पीयू जलमग्न विहंगमों का मंद मधुर संगीत।मंद मंद बहती शीतल ब्यार बेलों का प्रेमालिंगन हरितिमा में नाचते झूमते पत्तों की सरसराहट सर्वत्र रस ही रस की दिव्य अनुभूति।पुष्प पेड़ों से झर झर गिरते प्रियाप्रियतम जु की चरण रज हो जाने के लिए पूरी धरा पर कालीन से बिछ रहे हैं।सम्पूर्ण निकुंज में सरोज खिले हुए यमुना जु की श्यामल जल तरंगों पर महकते बिखरते जैसे नीलजलतरंगों को पीतवस्त्र पहनाया हो।
ऐसे में एक भ्रमरी जो पेड़ के तने पर सुक्षुप्त है युगों से।नेत्र मुंदे अनवरत तृषा को भीतर संजोये।तृषा प्रियाप्रियतम जु की चरण रज हो स्पर्श सेवा हेतु।अंतरंग गहराईयों को विरह या मिलन का ताप भी जहाँ नहीं छू रहा वहाँ अंतर्मन में भी अंतर्मुखी हुई ये भ्रमरी आखिर कैसे मोरकुटी के इस दिव्य रस से ना प्रभावित होती।श्यामा श्यामसुंदर जु को छू कर आई रसस्कित पवन ने इसे ज़रा छुआ तो है जैसे इसके जड़ हुए कर्णरूंधों को खटखटाकर कुछ कह दिया हो।
ललिता सखी जु की वीणा के नादरूप संगीत ने इसके कानों से प्रवेश पाया है और यूँ ही भीतर जम चुके हिमकणों में ज़रा बाहरी महक से हलचल तो हुई।नेत्र खुलते ही इसने पल में बीता सारा लीलारस जी लिया हो जैसे और इतनी प्रतीक्षा के बाद आज एक अश्रु बह चला पर वह भी हिम रूप ही।भीतरी जड़ता और बाहरी ताप के अभाव में रक्त में शीतलता आ जाने के कारण भ्रमरी रस बहाव का प्रयत्न मात्र ही करती है।
कभी जैसे श्यामसुंदर जु ने कह ही दिया हो कि सखी चल तो सही संग।दूर निशा में पर अंधेरों से परे।चल ले चलूं तुझे युगल रसीली गहराईयों में जहाँ की मदमस्त मधुर हवाओं की छुअन महकादे तुझे।जहाँ प्रेम की गहरी महक सब देह विकारों को छुड़ा जगत जंजालों से बचा तुझे स्वछन्द अर्पित करेगी रस रास के चरणों में।पर राह में चलते चलते जैसे सखी घिर गई हो काली घटाओं में और पहचान ना पाई घनश्याम को।आँधी तुफान के थपेड़ों से हाथ पकड़ चल ना सकी।श्यामसुंदर जु संग हैं हृदय की गहराईयों में पर सतह जम चुकी है।छू कर लौट आई है उसे जिसने एक बार दामन पकड़ा तो कभी ना छोड़ा।मिलन और विरह में बिछुड़न का भाव जो जिला रहा है फिर से मिलने की आस में।जीवन मौन है पर अंतर्मन अंगड़ाईयाँ लेता कि कभी फिर जगेगा वो एहसास जो यहाँ रज रूप थिरक वहाँ निकुंज में पराग बन मकरंद झरता पुष्प होगा।तब पुष्ट होगा पुष्प जो श्यामा श्यामसुंदर जु के चरण स्पर्श से मधु बन मधुसूदन व मधुमति की रसतृषा को बढ़ा कर प्रेम के नए रंग बुनेगा।अब इंतजार में बैठी हिम सी हुई भ्रमरी गुंजाइश से अधिक भीतर उतर चुकी सो खो चुकी अपना रस बहाव जो अलाव बन बहेगा कभी तो प्रेमअग्न ही बढ़ाएगा।
बलिहार !! बंजर हुई जमीन पर भी पुष्प खिला दे ऐसे रसराज रसेश्वरी की वृंदावन भूमि पर रस क्रीड़ा प्रकृति के कण कण को छू जाती है और फिर होता है नव नव प्रेम संचार नवीन लीलारस हेतु।ऐसे में सुक्षुप्त भ्रमरी की हृदय की तारों का भी छिड़ जाना एक सत्य दर्शन पा लेना अंतरंग में बसे अपने श्री प्रियाप्रियतम जु का वो भी नृत्य रस में मग्न।रसिक हृदय की अभिव्यक्त ना की जा सकने वाली अनोखी पर भावजनित अनुभूतियाँ।
क्रमशः
जय जय युगल !!
जय जय युगलरस विपिन वृंदावन !!
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