युगल सखी-अंतिम भाव
"चाहे कीर,कोकिला,कपोत कर सारस हु, चाहे मुखचन्द्र की चकोरी लै बनाईये।
चाहे कर लता, द्रुम, फूल, फल,पल्लव हु, मधुकर चाहे नेंक दयादृष्टि लाईये॥
लाल बलबीर दासी दीन, हे दया की राशि,कीजिये ज़रूर यहाँ जोई मन भाईये।
पर जैंसे बनें तैसें करुणानिधान स्वामिनी जू, हा हा, हे किशोरी मोहि वृन्दावन बसाइये॥"
अति भोर भई सब सखियाँ निकुंज में प्रवेश करतीं हैं ताम्बूल चंवर पेय जल तैल मधु शर्बत इत्यादि लेकर।श्यामा जु को उनकी अंतरंग सखी वस्त्र औढ़ा रही है।श्यामसुंदर जु श्यामा जु के मुख पर काजल सिंदूर व बिंदिया लगा रहे हैं।उनके नेत्र अभी भी रस से छलछला रहे हैं।श्यामा जु श्यामसुंदर जु को निहार रहीं हैं और वह सखी रात्रि की निबिड़ निकुंज में घटित अद्भुत प्रेम लीला की स्मृतियों में खोई हुई लजाई सी है।सेवा में उसके हाथ यंत्रचालित से हैं।
श्यामसुंदर जु श्यामा जु को इशारा कर उस सखी को निहारने को कहते हैं।सखी के नयन जैसे ही प्रिया जु वहाँ श्यामसुंदर जु के नयनों से टकराते हैं वह और अधिक लजा कर मुख झुका लेती है।श्यामा जु अपनी इस सखी की व्याकुलता को समझतीं हुईं उसे अंक में भर लेतीं हैं।अभिन्न तो यह सखी है ही श्यामा जु से एक जीवन तो एक प्राण।श्यामसुंदर जु सखी व श्यामा जु की स्थिति देख बड़े नेह से उन्हें निहार रहे हैं।
सखी के हृदय से लग श्यामा जु उसके भावों को जान ही गईं हैं।उसे हृदय से लग श्यामा जु उसे प्रीतिदान तो दे ही रहीं हैं और उससे उसकी तीव्र व्याकुलता को स्वयं में उतार रहीं हैं।बीती रात श्यामा जु श्रमित तो हुईं होंगी ये जान सखी उनके चरणों को सहलाना चाहती है।पर श्यामा जु अभी भी इसे हृदय से ही लगाए हैं।सखी अनवरत अश्रुपात कर रही है।श्यामा जु अपनी सखी की अधीरतावश हुई अजीब हाव भाव को समझ उसे अपना पूरा रस श्यामा जु में उतार देने को कहतीं हैं।
सखी अर्ध जागृत सी श्यामा जु के कंठ लगी है और कांप रही है।उसके नेत्रों से अश्रु ऐसे बहुत रहे हैं कि श्यामा जु के कंठ लगी उनका ही आँचल भिगो रही है।श्यामा जु सखी को शांत करना चाहतीं हैं पर उसकी व्याकुलता बढ़ती चली जा रही है।तभी सखी को आभास हो आता है कि सेवा का समय बीता जा रहा है।सहसा वो श्यामा जु से उनके चरण अपने वक्ष् पर रख देने को कहती है।श्यामा जु श्यामसुंदर जु की ओर निहारती हैं और जान लेतीं हैं कि सखी की व्याकुलता श्यामसुंदर जु के सखी के हृदयांकित हस्ताक्षर ही हैं।तभी वह सखी को अपने चरणों में बिठातीं हैं और सखी उनके चरणों का अपने अश्रुओं से प्रक्षालन करती उन्हें अपने हृदय से लगा लेती है।कुछ क्षणों के लिए वह यूँ ही श्यामा जु के चरणों में बैठी रहती है कि श्यामा जु अपनी इस भावसंगिनी के सिर पर हाथ रख इसे उठातीं हैं और समक्ष खड़े करती है।
श्यामा जु लाल सुभग साड़ी में व श्यामसुंदर जु पीतवर्ण वस्त्र पहने सखी को अद्भुत श्रृंगार किए नज़र आते हैं और उसके समक्ष पूर्ण निकुंज भवन अद्भुत साज सज्जा से भरपूर सखियों की चटक मटक संग दिखाई देता है।वह श्यामा जु की ओर निहारती है तो श्यामा जु उसके हृदय की जान स्वीकृति में अपना मस्तक हिलातीं हैं और श्यामसुंदर जु भी स्नेह भरे नेत्रों से सखी की तरफ देख मुस्करा देते हैं।
सखी की खुशी का कोई ठिकाना नहीं है और वह उत्साह से नाच उठती है।पूरे निकुंज को वो अपनी प्रेम लिप्त ध्वनियों से गुंजाती है और सब सखियों को हाथ पकड़ कर संग नचाती है।सखी उन दिव्य सखी का हृदय भीतर बार बार आभार करती उनके चरण स्पर्श कर रही है।श्यामा श्यामसुंदर जु भी सखी के उत्साह में उसका साथ देते झूमने लगते हैं।श्यामसुंदर जु वंशी पर मधुर तान छेड़ उसके उत्साह को और बढ़ा देते हैं।ना जाने ऐसा क्या पा लिया हो इस पगली ने कि आज प्रसन्नता वश अधीर हुई जा रही है और श्यामा श्यामसुंदर जु का नामामृत उचारती हुई हाथ उठा उठा कर नृत्य कर रही है।अपनी साधना में इसने श्यामा श्यामसुंदर सखियों को और अपने हृदय में बसाए सभी युगल स्वरूपों को एक कर रखा था।आज वो सब इस पगली के सामने फिर से भिन्न खड़े हैं और इसके उत्साह में शामिल हो स्नेह से श्यामा श्यामसुंदर जु का नाम उच्च ध्वनि में उच्चार रहे हैं।सखी इस अद्भुत नज़ारे को हृदय में उतार अत्यंत उत्साह से अश्रु बहा रही है।श्यामा श्यामसुंदर जु से अपनी अभिन्नता पर बलिहारी उन्मादित हुई अपनी मधुर चितवन से निकुंज को महका रही है और श्यामा श्यामसुंदर जु भी इसके अह्लाद को देख प्रसन्नता वश इसे सेवा प्रदान करते हैं।
जय जय श्यामाश्याम
जय जय वृंदावन धाम
हा श्यामा !!
हे श्यामसुंदर !!
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