*पिय उररंजिणी वेणु वेणु*
प्यारी जु की प्रेम सुधा को पान करते करते प्रियतम अघाते नहीं हैं।अपने नेत्रों से श्रीप्रिया जु को निहारते निहारते प्रियतम ने अपने अधरों पर वेणु सजा ली है।जैसे जैसे प्रियतम प्यारी जु को निहार रहे हैं उनकी रूप सुधा को पान कर रहे हैं , यह सुधा उनके अधरों से रव रव बनकर प्यारी जु के नाम को ही गान कर रही है। आह!! प्यारी जु को नाम इतनो मधुर इतनी मधुर, प्यारी जु को रूप ऐसो मधुर की प्रियतम से सम्भलते न बन पा रहा। छलक गया प्यारी जु का नाम अधरों से , वेणु रव होकर। यही रव निकुंज के कण कण को गुंजायमान कर रहा है। श्रीनिकुंज का कण कण श्रीप्रियतम का सुख विलास ही तो है। जो माधुर्य प्रियतम नेत्रों से पान कर रहे वही तो छलक रहा, महक रहा, बिखर रहा, राधा रूप सुधा को नेत्रों से पान कर वेणु रव से भिगो रहे, स्वयम भी भीग रहे। इस वेणु नाद से जहां श्रीनिकुंज विलस रहा है , श्रीप्रियतम के हृदय कमलिनी श्रीराधा का प्रतिबिंब ही सम्पूर्ण निकुञ्ज रूप धारण कर चुका है, जिसका रोम रोम प्रियतम के सुखार्थ ही उज्ज्वल है।
इस वेणु नाद ने अपनी मधुरता श्रीप्रिया से ही प्राप्त की है और श्रीप्रियतम के हृदय को प्रिया प्रेम से अभिसिक्त किया है , ऐसे रंजित कर दिया है कि यह वेणु *पिय उररंजिणी वेणु वेणु* हो चुकी है। इस वेणु के रव रव से प्रियतम श्रीप्रिया नाम को पुकारते हुए ऐसे तन्मय हो गए कि नेत्र मूंद गए उनके। कुछ क्षण पूर्व जिस रूप छवि को निहार रहे थे, जिसको भर भर भीतर उतार रहे थे , क्षण भर में वह दूरी भी न रही, श्रीप्रिया उनके हृदय कोर में ही समा गई। नेत्र मूंदे हुए हैं अधरों से प्रत्येक रव एक ही नाम पुकार रहा राधा राधा ....यह नाम ही राधा बन अब प्रियतम हृदय में भर गया जहां प्रियाप्रियतम एक हो गए , भीतर ही भीतर निहार रहे , भीतर ही घुलती हुई रूप सुधा अधरों से झर रही , इस प्रेम सिन्धु की तरँगे अधरों से रव हो छिटक रही । पिय उररंजिणी वेणु ने प्रियतम के उर को रंजित किया है उनकी प्रियतमा के मधुर रूप विलास में।कोटि कोटि नमन , कोटि कोटि जय जयकार ,प्रियाप्रियतम की प्रेम संगिनी यह वेणु की ,जो उनको सँग कर रही है, रँग रही है डुबो रही है। पिय उर रंगिणी वेणु वेणु , जय जय वेणु जय श्रीवेणु।जय जय वेणु जय श्रीवेणु.....
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