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लज्जाशीला श्रीप्रिया जू भाव 2 , उज्ज्वल श्रीप्रियाजू , संगिनी जू

*लज्जाशीला श्रीप्रिया*

"बूँदें सुहावनी री लागति मति भींजै तेरी चूनरी।
मोहिं दै उतारि धरि राखौं बगल में तू न री।।
लागि लपटाइ रहैं छाती सौं छाती जो न आवै तोहिं बौछार की फूनरी।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कहत बिजुरी कौंधे करि हाँ हूँ न री।।"

अधर धर जब वेणु बजाई...प्राणसंगिनी श्रीप्रिया वेणु वेणु रूप रोम रोम रव रव बन अंगसंगिनी सुवास सुवास होकर समाई...अहा... ... ...
सखी री...लज्जा प्रेम में एक ऐसा भाव जो तनिक सा भी भरे पुरे तो लज्जा लज्जा से लिपट सिमट कर लज्जा में ही समावे री...
मधुर मंथर मंद मंद पवन के सान्निध्य में कमलिनी लजा जावै...जैसे पवन इसे सुवासित देख सुवासित हो रही और कमलिनी पवन की मंद मंद रसीली छुअन से लजाती इत उत डोलती...तब यह पवन किंचित गहन स्वरूप धर घन हो जाती कमलिनी की लज्जित सुवासों की गहनता से...ब्यार जब घनरूप हो तनिक सरसीली अपनी नन्ही नन्ही ओस की बूँद मात्र कमलिनी पर गिराती तो महक चहक कर ये और लजा जाती और भीगती सिमटती सी पवन के रस से सनी किंचित झुक जातीं...प्रतिपंखुड़ी जैसे पलक पर श्रमजलकण सजती ये कमलिनी...भीतर ही भीतर लज्जा से भरी रसब्यार के आगोश में पूर्णतः छुप जाने को...जैसे चकोरी चाँदनी की छटा में पूर्णतः भीगी सी सिमटती...जैसे मयूरी मयूर के आगोश में लज्जित सी झुकती...जैसे दामिनी घनघोर घन की गोद में विलीन होकर स्वयं को बिसर रस होकर धरा पर बरसती...अहा... ... ...
सखी...सम्पूर्ण श्रृंगार ही जब प्रिय की छुअन से संवरे सिमटे से फलीभूत होने लगें तो लज्जा तो पट में छुपी भीगी सी श्रृंगार के आगोश में ही भर जावे ना...समावेश हो जावे लज्जा का स्वतः प्रियतम के सरस रसीले आगोश में क्यों कि लज्जा जिस जिस आवरण में सिमटती उसे हर वो आवरण प्रियतम ही जान पड़ता तब लज्जा का विस्तार होते होते लज्जा उसी के आगोश में सिमट जाती जहाँ से लज्जा का आगाज़ हुआ...अहा...
सखी री...चंद ओस की बूँदें जब श्रृंगार रूप कमलिनी पर पड़तीं सजतीं तो लज्जाशीला मेघ के आवरण में ही महकती सिमटती मन ही मन आग्रह कर बैठती कि अब पूर्णतः ही भिगा दो...मंद मंद रसबूँदन की छुअन से सिमटी सिमटी कमलिनी घनरस में तल्लीन होकर रस से सराबोर रसकमलिनी हो जाती और लज्जा से श्रृंगार धारण करती श्रृंगार के आगोश में सिमटकर गहन गहनतम श्रृंगारित होती रहती...
लज्जा के समस्त आवरण घूँघट हटकर प्रियतम के रसीले आगोश में भर जाते जहाँ लज्जा का ऐसा विस्तार होता कि लज्जा ही श्रृंगार होकर सिमट जाती प्रियहिय से...कहीं कुछ है ही नहीं जो प्रियावरण हो सके...प्रियतम ही प्रियतम...तो प्रियतम ही आवरण हुए इस लज्जा का...अहा... ... ...
एक एक कर सर्व आवरण भूली कमलिनी घन की रसीली कोमल रसवर्षा में पूर्णरूपेण भीग रही और अब चंचलता से अपने रोम रोम में रस भर कर रससार होती रस से भीगी रस ही रस छलका रही...यही तो हुआ ना लज्जा का विस्तार जिसे यह बोध ही छूट गया कि सगरे आवरण तो छल मात्र ही हैं...प्रियहिय का सुघड़ सलोना आवरण ही है जहाँ लज्जा आवरणरहित रस से सराबोर हो उठती...यहाँ खुलते लज्जा के सगरे भेद जहाँ अंतिम आवरण में सिमट लिपट कर विस्मृत विस्मित सी लज्जित सी डूबने लगती और ऐसा डूबती कि सर्वरसों से एकरस हो जाती... ... ...
सखी...हमारी लज्जाशीला श्रीप्रिया जू भी ऐसे ही पवन के मंद झोंके को भी सहन न कर पातीं और प्रियतम जान सुवासित लज्जित हो जातीं...सखियों का मधुर संगीत...सुक सारि का मंद मंद रसीला राग...रजरानी की महक...एक एक श्रृंगार फूलनि सा उनकी रसदेह को प्रियतम सम सहलाता दुलराता रहता...तन पर नीली साड़ी...लाल कंचुकी...हरी पीली चूनरी सब लज्जा के आवरण ही जब प्रियतम व्याप रहे तो लज्जा का ही विस्तार हो रहा ना...अधरों की लाली...गेसु की कालिमा...नयनों की श्यामता...कपोलों की गौरता जब सब प्रियतम प्रियतम ही पुकार रहे तो वेणु वेणु के रव रव में गूँजती प्राणसंगिनी की महक और जावक की टहल भी प्रिय ही सी ठसकीली गर्बीली प्यारी को लजा जाती...तब जब सब श्रृंगार आवरण ही प्रियतम सुखरूप...प्रियतम हितरूप ही हैं तो लज्जा का विस्तार होते होते लज्जा का प्रियतम आगोश में ही लजाकर समा जाना तो लज्जाशीला का स्वाभाविक विस्तार और मिलन है ना...अहा... ... ...
लज्जा...प्रियहिय का सहज श्रृंगार और लज्जा...प्रियहिय ही अंतिम पड़ाव और आवरण...जहाँ विस्तृत होते होते लज्जा स्वतः रसीली होकर आवरणरहित सुघड़ आवरण ओढ़ लेती और वाणी मौन...मौन...मौन...रह जाती... ... ...
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!

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