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लज्जाशीला श्रीप्रिया , उज्ज्वल श्रीप्रियाजू , संगीनि

*लज्जाशीला* श्रीप्रिया

"तेरो मग जोवत लाल बिहारी।
तेरी समाधि अजहूं नहीं छूटत चाहत नाहिंने नेंकु निहारी।।
औचक आइ द्वै कर सौं मूँदे नैन अरबराइ उठी चिहारी।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा ढूँढत वन में पाई प्रिया दिहारी।।"
लज्जा...ए री लज्जा...रस छलछलाती रसपुतरियों को किंचित ढुरकने तो दे...तनिक नयन तो उठा...झुकी पलक तो उघार री...देख स्यामल श्याम ढल आई री...निरख तो चंद्र रात्रि की काली चादर पर चाँदनी बिखेर रहा री...और...और सखी री...तनिक मुँदे नयनों पर धरे सुकोमल पत्रों की किवड़िया से झाँकी निहार तो...सितारे जगमगाने को...चंदा आला के घेराव से तेरी महक पर भ्रमरवत झुक आया पर जैसे ये उसे रोक रहा कि अभी नहीं...तनिक महक को गहराने दो...और तुम अपनी ही शीलता में डूबी लजाई सिमटी निखरती गहराती जा रही...अहा... ... ...
रात की रानी गौर रंगीली सी किंचित संध्या की ललिमा में नहाई महकी हुई झुकी झुकी लजा रही है...रात्रि की गोद में जो भोर सुषुप्त सी...और लज्जा ऐसी कि घुंघराली काली अलकों पर कंठ तक घूँघट और घूँघट पर भी निशाकालीन रसलिप्त गहन क्षुधित अंधियारा...लताजाल मुख पर ऐसे कि लज्जाशीला रात की रानी को लालिमा में...ढलती श्यामल घटा में...और सुनहरी चाँदनी में भी रसिक रसीली रंगीली घन से भी गहरी रसमाधुरी का पान करने हेतु ढुरक आई स्वमहक पर भी लज्जा की गहनतम चादर में सिमटी कलियों की सुगंध पियहिय की समीपता का आभास करा रही...
सखी री...रात की रानी उस रसीली पियहिय से सुवासित महक से स्वतः लजा रही और प्रिय उस महक का पान करते हुए उसी में डूबते खिंचे से चले आ रहे... ... ...
कमल तो सूर्य के उगने पर किंचित अविलंब ना सहते और निहारने लगते...गहनालिंगन में उसकी रसीली रश्मियों में बंधे रसपान कराते महक को भीतर समेट कर भर लेते पर सखी री...ये रात की रानी तो सायंकाल जान लजा जाती कि अब प्रियतम इसकी महक से मदचखे से खिंचे चले आएं इससे पूर्व शर्माई हुई सी सिमट कर अपनी बिखरती महक को भी समेट ना पाती...अहा...और बिखर बिखर जाती पर लज्जा इसका साथ ना छोड़ती...चाहती पिया को तनिक घूँघट की आढ़ से ही निहार लूं...लज्जा से आग्रह भी करती कि तनिक रसानुभूति हेतु महकी चादर को मुख से हटा तो ले ताकि पियामुख चाँदनी का किंचित दरस कर तृषित नयनों को तो सुख हो...पर जाने क्या मदमस्त महका सा रसजाल बिछा कि छन छन कर आती चाँदनी भी सुलघ कर ना तो छू ही पाती और ना परतते ही बनता...ओस की बूँदें तो फिर भी छूकर एहसास कर पातीं कोमलांगी मधुर रसीली महकी रात की रानी के सुंदर सरस लावण्ययुक्त अभूतपूर्व गौर पुष्प का पर चाँदनी तो घन में लिपटी सिमटी सी भी छू ना पाती ऐसी लजीली शर्मीली गौर छटा को...आह... ... ...
अरी भोरी...ऐसी लज्जा भी भला किस काम की...पर हाँ...इस लज्जा में गहरा रस समुंद्र री जिसमें सम्पूर्ण रात्रि महकी महकी सिमटी लजाती पियहिय की कोमल छेड़न से रसविस्तार करती रहती और भोर होने से पूर्व तक श्रृंगारित होती पियकरकमलों से...सुंदर...अति सुंदर...अत्यधिक सुंदर...सुंदरता की अलबेली शर्मीली लता पुष्पसार से सजती ढलती रहती पर पलक ना उघारती...रसवर्धन...रसवर्धन...रसवर्धन...ऐसी सुवासित कि गहराते गहराते एकरस हो जाती कब...जान ही नहीं पड़ता...और...और...और गहरी...काली रसीली घटा में सिमटी चाँदनी की महक में भीगी भीगी सी स्वयं रात की रानी यह गौरवदनी कली चाँदनी सम हो जाती और सखी... ... ...
सखी...तब निहार पाती नयनों में नयन डाल जब स्वयं उसके रंग में ढल जाती कि यह लज्जा का आवरण जो ओढ़े थी यह किन्हीं और से तो था ही ना...यह तो स्वयं की रसपिपासा से ही था...जैसे ही सारे आवरण छटते रहे...रसीली चाँदनी में रंगीली महक घुलती रही...और नयन उघार निहारा तो स्वयं को ही समक्ष पाकर लज्जा लज्जा में सिमट कर रह गई...प्रिया प्रियतम को निहारती और प्रियतम प्रिया को परस्पर नयनों से...रसीले क्षुधित से...भोर के आगाज़ तक खेलते रहे रात की रानी की महक से चाँदनी में रससार हुए रसीले दो नयन...कभी झुके...कभी लजाए...और कभी गहराए...अहा... ... ...
*लज्जाशीला* ...सम्पूर्ण रात्रि जिस महक में सिमटी लजाती रही...श्रृंगारित होती रही...उसे महक होकर ही निहार पाती...महक महक में घुल कर एक होकर ही लज्जा की गहरी सुषुप्त चादर के तानेबाने से छूट कर स्वतः घुल जाती...सम्पूर्ण रैन खेलती रहती...और भोर होने पर अलसाई सिमटी पियहिय पर बिखरी संवरी सी भोर को भी लज्जा संग लोरी सुनाती सुलाने का प्रयास करती कि अब तो तनिक निहार लूं...अब तनिक घूँघट और लताजाल का आवरण हटा कि अब तो श्वास श्वास महक भर जी लूं...पियमहक से जंभाई भर नयनसुख पाती अधर से पी लूं...अब तो लाज पराई भई...नयनाभिराम रसानुभूति को भीतर भर लूं...कि फिर भोर होने को...और गौर देह लज्जा की चादर में खोने से पूर्व घनघोर रसालिंगन में स्व को खो दूं...अहा... ... ...
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!

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