Skip to main content

पदकमल नूपुर राजति

*पदकमल नूपुर राजति*

हे वृषभानुनन्दिनी! हे कीर्तिदा ! आपके सुकोमल पादपदमों में सुशोभित नूपुर की मैं वन्दना करती हूँ । हे निकुंजेश्वरी !इस दासी की कोई योग्यता नहीं कि आपके चरण कमलों का भी गुणानुवाद कर सकूँ, परन्तु स्वामिनी आपके चरणों की सुशीतल छाया को छोड़ इस दासी की कोई और ठौर भी तो नहीं है। आपके चरण कमलों की कोर ही इस दासी के हृदय का वास्तविक धन है। जिस प्रकार एक धनिक को अपने धन का अभिमान रहता है , हे किशोरी जु !आपकी इस दासी के हृदय में भी अपनी स्वामिनी के चरणों के गुणगान का लोभ उदय हुआ है। हे कोमालंगी!कब अपने कोमल चरण कमलों की सेवा इस दासी को प्रदान करोगी।कब आपके कोमल जावक सुसज्जित चरण कमलों की शोभा नेत्र भर निहार पाऊँगी , जिसकी सेवा को त्रिभुवन नायक श्रीकृष्ण भी सदा लालायित रहते हैं।

   हे स्वामिनी!आपके जावक रचे चरणों का लालित्य जो श्रीप्रियतम के अनुराग से नित्य नित्य रंजित, नित्य वर्धित है , कब उसके सौरभ में डूब यह दासी स्वयम को भाग्यशाली अनुभव करेगी।

   आपके चरणों मे सुशोभित नूपुर जिसके एक एक रव से  कोटिन कोटि वेद मन्त्र निकलते हैं , कब उसका दर्शह्न कर अपने व्याकुल हृदय को शांत करूँगी। हे किशोरी जु! आपके यह नूपुर की ध्वनि कोटिन कोटि ब्रह्मांड नायक के हृदय को, प्राणों को भी आंदोलित करती है। विरहातुर श्रीप्रियतम जब इन नूपुरों की झन्कार सुनते हैं तो आपके शीघ्र मिलन की आशा उनके हृदय में बलवती हो उठती है । उनके प्राण जैसे उनके श्रवण पुटों पर टिककर अपनी स्वामिनी के लौटने के मार्ग पर नेत्र बिछा देते हैं। इन नूपुरों का झंकृत होना उनमे प्राणों का संचार करने लगता है। श्रीनिकुंज में जब प्रियतम विरह वेदना से व्याकुल हो उठते हैं तब इन्हीं नूपुरों का एक एक रव उनके प्राणों की जीवनोषधि हो जाता है।

    जब आप प्रसन्न चित हो नृत्य करती हो तो उनकी वंशी का नाद इन नूपुरों के रव रव से मिलकर आपको तथा आपके प्रियतम को नित्य मिलन की स्मृति देता है। जिस जिस स्वर से आपके श्रीनूपुर झंकृत होते हैं, उसी नाद से श्रीवेणु निकुंज को प्रेम सौरभ प्रदान करती है। कभी कभी श्रीप्रियतम नृत्य में स्थिर हो जाते हैं, वह आपके नूपुरों की ध्वनि तथा आपके नेत्रों की भाव भंगिमा देख देख आनन्दित होते हैं। कभी उनके प्राण आपके नेत्रों की भंगिमा पर न्यौछावर होने लगते हैं तो कभी वह नूपुरों की झंकार से अपना हृदय शीतल करने लगते हैं। हे प्राणेश्वरी!यह दासी कब आपके नूपुरों के रव रव को अपने हृदय में अनुभव कर सकेगी। कब इन नूपुरों का झँकृत होना इस दासी के प्राणों की संजीवनी होगा।

   हे निकुञ्ज विलासिनी!जब आप अपने प्रियतम के साथ नित्य विहार में हुलसित होवोगी , तब आपके नूपुरों का रव आपके प्रियतम के चित्त को आकर्षित करेगा। यह दासी अपने युगल की सुख निधि इन नूपुर रवों को कब सुन सकेगी। इन नूपुरों का झन्कार वेद मंत्रों का मूल है, *अनेकमन्त्रनादमंजु नूपुरारवस्खलत्* बड़े बड़े योगी तपस्वी इन कोटिन कोटि वेद मंत्रों का उच्चारण करते हैं तब भी वह आपके नूपुरों की ध्वनि नहीं सुन पाते। इस दासी का तो कोई बल ही नहीं है, ऐसी कोई विधि भी ज्ञात नहीं जिससे स्वामिनी जु को रिझा सकूँ। परन्तु प्राणों को यही आशा बचाए रखती है कि *मेरी स्वामिनी उदार* हे किशोरी जु !आप तो दयालुता की राशि हो, अपने चरणों के आश्रित जीव की आप स्वयम आश्रय प्रदाता हो। हे भोरी स्वामिनी!आप मुझ दासी के कुटिल हृदय के कपट को भी भुलाने वाली हो, झूठ से भी यदि कोई जिव्हा आपको पुकार लेती है तो करुणासिन्धु के हृदय का सिन्धु उमड़ने लगता है। हे स्वामिनी !मेरे पास तो शब्द ही नहीं हैं जिससे मैं कोई स्तुति कर पाऊँ, पर करुणेश्वरी के हृदय की करुणा की आशा में यह दासी नित्य पुकार लगाती रहेगी।

  जय जय श्रीराधे!

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात