*प्यारी प्रियतम रूप, उमगि।प्यारौ प्रिया स्वरूप, उमगि।*
श्रीहरिदास !!
रसीली रंगीली प्यारी जू उमगि उमगि प्रियतम के रूप माधुर्य पर बलिहार जाती है...जैसे बालपन में भोलाभाला शिशु माँ के दुग्धपान से ही संवरता निखरता है और माँ अपने ही माधुरी रूपसुधा का पान कराती बालक को सम्पूर्ण विश्व में रूपवान अत्यंत सुंदरतम जानती मानती है ऐसे ही प्यारी जू अह्लादिनी शक्ति स्वरूपिणी प्रियतम के स्वपुष्ट होते रूपमाधुर्य लावण्य को निरख निरख उन्मादित हुल्लसित होती हैं और उन्हें रसपिपासु जान उनके करों की मधुर रसतरंगिनी बांसुरी सी हो उठी हैं...अहा... ... ...
प्यारी जू रसललायित प्रियतम के अधरों से ऐसे रससुधा का पान करा रहीं हैं कि स्वयं स्वामिनी प्यारे जू के रूप पर आसक्त हुईं उन्हें प्राणाराधिका कैंकरत्व प्रदान कर रहीं हैं...प्रियतम रससुधा का पान करते ना अघाते और रोम रोम प्रतिरव बांसुरी में डूबते जा रहे हैं और प्यारी बांसुरी बनी प्यारे जू को अनन्तरस की समुद्र रसतरंगों में निमज्जन करातीं उनके ही रसिक शिरोमणि रूप पर बलि बलि जातीं प्रतिरव सुघड़ सुंदरतम रूपसुधा का पान करातीं हैं...प्रियतम जैसे बांसुरी में बढ़ते रससंचार से अनन्तगुणा क्षुधित होते होते अत्यधिक रूपवान होते हुए और अधिक रूपसुधा पान करते अभूतपूर्व माधुर्य से सराबोर होते प्यारी जू को रीझते रीझते रिझा रहे हैं... ... ...
उधर प्रियतम प्यारी जू की रूपमाधुरी का तत्सुख में लय विलय होते देख तनिक संकुचित होते उनके रसीले रंगीले भावस्वरूप पर उमगि जाते हैं...प्रियतम श्यामा जू के बांसुरीवत होकर प्यारे को रसपान कराते निहारते स्वतः उनके दास हुए जा रहे हैं...प्यारी जू के ही स्वरूप का पान कर प्यारी जू ही होकर उनकी किंकरीवत उनका रसश्रृंगार करना चाहते हैं...अहा... ... ...
तत्सुख की पराकाष्ठा यह प्यारे प्यारी जू का अनूठा प्रेम जो परस्पर उन्हें सेवायित होने के लिए लालायित करता जा रहा है और इसी रसीली प्रति में परस्पर सुखरूप वे दो हुए परस्पर को परस्पर रूपमाधुरी का भरपूर रसपान करा रहे हैं और उमगि उमगि प्यारी जू प्रियतम के रूप पर आसक्त हुईं हैं तो प्रियतम प्यारी जू के इस गहनतम स्वरूप पर आसक्त...अद्भुत... ... ...
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
[3/23, 15:54] Yugalkripa sangini ju: *प्यारी पीय न कोय, उमगि। हित विलसत वपु दोय, उमगि।*
श्रीहरिदास !!
उमगि उमगि ऐसे डूबे...प्रेम रंग में रंगे प्रियालाल जू कि अब कोई प्रियतम या कोई प्रिया जू ना रहे...परस्पर रंग में रंगे पियप्यारी जू...अभिन्नत्व ऐसा गहन कि कोई भेद ही ना रहा...जैसे प्रिया जू के हियकंवल का मकरंद प्रियतम को तृषित क्षुधित करता ऐसे ही अब प्रियतम हियकंवल का प्रत्येक मकरंद कण प्यारी जू को तृषा क्षुधा कर रहा...दोनों परस्पर रंग में रचे बसे उमगि उमगि परस्पर के हियप्रसून का मकरंदसम श्रृंगार हुए जा रहे...ना प्यारी प्यारी रहीं ना प्रियतम लाल...
सच कहूँ...तो *लाली तेरे लाल की जित देखूं तित लाल* अहा... ... ...
जाने कौन किसके रंग में रंगा...जाने कौन रस से सराबोर किसे रससार कर रहा...जैसे पपीहा घन से पुकार करते करते पी पी पुकारता बरसात की तनिक रसीली बौछार से भीग कर घनसम रस से सराबोर होकर थिरक फुरक उठता...ऐसे ही लाल जू प्यारी जू के और प्यारी जू लाल जू रंग में रंगे उमगि उमगि पुलक रहे...
दोनों प्रिया लाल जू...हालाँकि एकस्वरूप पर परस्पर हितरूप द्वैरूप हुए उमगि उमगि एक होकर एक दूसरे को सुख दे रहे...दोनों परस्पर सुखरूप हूए निकुँज भवन में विलस रहे...समवयस...समरस...समभाव...सर्वरंगों में डूबे उतरे परस्पर सुखरूप रंगीले सजीले हुए जा रहे...प्यारी जू प्रियतम को सुख दे रहीं और प्रियतम प्यारी जू को...दोनों परस्पर सुखरूप स्वविस्मृत हुए रसरंगालाप में भीगते डूबते रस संजोते एक दूसरे पर रूपमाधुरी का मधुर वर्षण कर रहे...दोनों और जैसे तृषा ही तृषा होकर रस लावण्य का श्रृंगार करतीं दोनों को ही रसपान करा रही...
जैसे उपवन में पियप्यारी दो फूल फूलनि हुए अपनी अभिन्न महक में रचेबसे कभी रससार होते तो कभी ब्यार में घुलती परस्पर की महक से मधुकर मदमस्त हो जाते...मृगमारिचिका सा खेल...मृग अपनी ही नाभि में छुपी सुगंध से विचलित वनविहरन करता ना अघाता...ऐसे प्यारी के नयनों में उतरे प्रियतम और प्रियतम के नयनसुखसागर की सुधा में डूबीं प्यारी जू...एकरस...एकवपु...एकवय... *भुजंग सौं भुजंग ज्युं* लिपट लिपट ना अघाते...दोनों परस्पर सुख हेतु विलस भी रहे और हुलस भी...उमगि उमगि रहे...
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
[3/23, 15:55] Yugalkripa sangini ju: *पान छकन रस स्वाद, उमगि।चाह ताप उन्माद, उमगि।*
श्रीहरिदास !!
परस्पर रूपमाधुर्य का रसपान करते प्यारे प्यारी जू छके से रसस्वाद में विलीन तल्लीन हुए उमगि रहे हैं...पल भर भी रसपान करने में किंचित चूक नहीं...और...और...और अधिक अत्यधिक माधुर्य सौंदर्य के रसिक पारखी प्रतिपल गहनतम रूपसुधा का पान कर रहे हैं और परस्पर रसपान कराने में डूबे डूबे उमगि रहे हैं...
दोनों और अभिन्न रूप स्वरूप यूँ उतर चुका है कि कोई भेद नहीं रहा...दोनों ही दोनों के लिए पिपासित और उन्मादित हुए हैं...प्यारी जू प्रियतम सुखरूप और प्रियतम प्यारी सुखरूप...यह भेद भी मिट चुका है...
रस पीने पिलाने की होड़ नहीं अपितु परस्पर रसपान करते कराते क्षुधा क्षुधित हुए दोऊ जन...अहा... ... ...
दोनों तरफ एक ही प्यास जैसे प्यास होकर उमड़ रही और रसतरंगों में उमड़ती घुमड़ती प्यास ही प्यास को पीकर अतृप्त हो रही...उन्माद भर रहा दोनों में...जैसे प्यारी जू प्रियतम होकर प्रिय को प्यारी सुख दे रही और प्रियतम प्यारी जू होकर प्यारी को प्रियसुख दे रहे...अनवरत गहराता जा रहा दोनों का रससेवाभाव...दोनों परस्पर सुखरूप से अति गहन सेवारूप हुए उमगि उमगि रहे...
दोनों ओर एक ही उन्माद...एक ही प्यास...एक ही ताप...एक ही उमँग...कि प्यारे जू को प्यारी जू सुखसेवा प्रदान करें और प्यारे जू प्यारी जू को...उमगि उमगि दोऊ जन बस उमँग उमँग में उमगि रहे...अहा... ... ...
अभिन्नत्व में अभिन्न उमँग और अभिन्न उमँग की अभिन्न उमगनि...जयजय
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
[3/23, 15:55] Yugalkripa sangini ju: *तामें सहज मिलाप, उमगि।सहज विरह की ताप, उमगि।*
श्रीहरिदास !!
कैसा ये करुण प्रेम...अहा...मिलकर भी अमिलन हो रहा और पुनः पुनः रस गहरा कर मिल रहा... *अबहीं और अबहीं और* रुकने थमने का कहीं कोई भाव भी नहीं पर मिल मिल कर भी मिले रहने का अनवरत प्रयास...तनिक विरह ही नहीं और किंचित विश्राम भी तो नहीं...गहराते गहराते अमिलन भी ना सुहाता तब भी लीलाधारी श्यामाश्याम जू परस्पर को अधिकाधिक सुख लालसा में डूबे ही पाते...और...और रसबौछार से गहराते एक दूसरे को रससार करते ना अघाते...
मिले हुए भी परस्पर विरह संताप इन्हें और क्षुब्ध करता...स्वसुख हेतु ना री...अपितु परस्पर सुखहेतु...कहीं श्यामसुंदर अभी रसतृषित तो ना रह गए...और श्यामा जू की सेवा वांछा में कोई कमी तो ना रही...यही भाव सुभाव उन्हें प्रतिक्षण और और अधिक व्याकुल करता रहता कि अभी और प्यारी जू की सेवा...अभी और प्यारे जू का सुख...अहा... ... ...
श्यामसुंदर श्यामसुंदर पुकारतीं श्वास श्वास प्यारी जू प्रियतम में उमगति जा रहीं और बांसुरी बनी उन्हें अधरों से प्राणों तक रव रव रसपान करवा रहीं...और प्रियतम अपने करकमलों से बांसुरी बनी श्यामा जू के श्रीअंगों का मधुर स्पर्श कर सेवा हुए जा रहे...स्वरूप विस्मृति में प्यारी जू प्रियतम और प्रियतम प्यारी जू की सहचरीवत उन्हें रससेवा प्रदान कर रहे...
सहज मिलाप में सहज विरह का ताप भी प्यारी प्यारेलाल जू को अत्यंत सुकोमलतम रससेवा होकर उमगि उमगि उमगा रहा...दोनों परस्पर रूपसुधा का पान करते स्वरूप विस्मृत कर चुके पर प्रेम की प्यास और...और...और...गहरी ही होती जा रही...अहा... मिलन में विरह...विरह में मिलन...तत्सुखसुखित्व रूप स्वरूप के धनी हमारे किशोर किशोरी जू...
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
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