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धैर्यधारिणी श्रीसुकुमारी श्यामा जू"भाव-2 उज्ज्वल श्रीप्रियाजू

"धैर्यधारिणी श्रीसुकुमारी श्यामा जू"भाव-2

*श्रीराधारसिकेश्वरीं प्रणयिनीं सर्वांगभूषावृतां श्रीवृंदावननिकुञ्जकेलिनिपुणां कोटीन्दुशोभायुताम्।
श्रीकृष्णः निकुञ्जेश्वरीं सुखकरीं इच्छासखीपोषिणीम्।*

सखी री...जब वार्ता प्रेम व धैर्य की हो रही तो प्रेम में धैर्य की सुधि नहीं रहती...यह हमारे प्राणप्रियतम का गुण है...हालाँकि वे असीम कृपा करते अनंत बार भक्तों के प्रति धैर्यवान हो भी जाते और उन्हें कामनाओं से मुक्त करने हेतु प्रतिकूल परिस्थितियों में भी रखते...पर सखी...परम भक्तिमति दयालु हमारी श्रीकिशोरी जू का प्राणप्रियतम हेतु प्रेम इतना गहन है कि स्वयं प्रियतम सकाम हो उनके चरणों की सेवा करने को तत्पर हो जाते...
सखी री...अति पवित्र व निष्काम प्रेम हमारी स्वामिनी जू का...ऐसा इसलिए कि उनकी कोई निज कामना नहीं प्रियतम प्रेम पाने की...अपितु वे तो रूपराशि की...प्रेम की ऐसी रसीली मुर्त हैं कि प्रियतम हेतु ही प्रियतम से प्रेम कर उन्हें सुख प्रदान करतीं...वे तो अति उच्च कोटि की प्रेम भक्ति स्वरूपा हैं कि भगवदप्रेम में देहाध्यास ही छूट जाए ऐसा निश्चल सहज प्रेम उनका...और ऐसा निष्काम कि प्रेम पुजारी श्यामसुंदर सम्पूर्ण भगवत्ता को विस्मरण कर प्यारी जू के चरणों में लुण्ठित हो जाते...
सखी री...परम प्रवीण सुकौशल प्रेम की अधिष्ठात्री हमारी प्यारी जू धैर्यधारिणी हैं...क्योंकि धैर्य खो जाए...ऐसे हमारे प्रियतम को भी धैर्य दान देतीं वे...
*तिनकौं प्रेम औरहिं भांति,अद्भुत रीति कही नहीं जाति।*
प्यारी जू का रूप माधुर्य ऐसा कि प्रियतम घड़ी घड़ी उनके रूपजाल में फंसते और फिसलते भी...और प्रेम की टेढ़ी चाल ऐसी कि तत्सुखसुखित्व हमारी लाड़ली जू मात्र भृकुटि की मरोड़न से प्रियतम को धैर्य दान देतीं...मानिनी जू के इस अति मधुर सुखदायी भृकुटि विलास में चंचलमना प्रियतम प्रगाढ़ प्रेम में फिसलते फिसलते संभल जाते...अहा...
हालाँकि प्यारी जू के लिए भी प्रियतम के समक्ष धैर्य धारण करना अनंत कोटि की साधना से ही फलीभूत होता पर प्रियतम सुखार्थ ही प्रेम की परमपण्डिता सखी ललिता जू की भी प्रेमगुरू रसवर्धन हेतू ही धैर्य धारण कर लेतीं...आखिर हमारे प्रियाप्रियतम जू हैं ही ऐसे गहनतम प्रेमी कि उनकी गति स्वयं ब्रह्म विष्णु शिव भी ना जान पाते...और जिनकी चरण वन्दना करते...उनके मात्र भृकुटि विलास पर सृष्टि का सृजन उद्घटन हो जाता...
*मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन। जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन.....*
उन प्रेम देव व प्रेम देव की भी अधिष्ठात्री के धैर्य व भ्रू-विलास की क्या सराहना करें...अनुपम...जिसकी उपमा भी नहीं तो विस्तार भी क्या हो... ... ...
"देखि सखी नवल निकुंज विहार।
राजति सखी सेज पर दोऊ,रूपसींव सुकुमार।।
परम चतुर वृंदावन रानी,करत अंक पिय सैन।
निरखत सहज अंगछबि मोहन,भये सजल पिय नैन।।
यह गति जान प्रियाप्रीतम की,परम मृदुल मन कीनो।
जिहिं विधि रुचि प्यारे लालन की,तिहिं तिहिं विधि सुख दीनो।।
मुदित सखी अवलोकत जिनके,यह सुख जीवन पाई।
इहि रस पगी और कछु सुपने,हितध्रुव मन ना सुहाई।।"

*प्रथम यथा-मति प्रणयुँ,श्रीवृंदावन अति रम्य।
श्रीराधिका कृपा बिनु,सबके मननि अगम्य।।*

सखी री...ऐसे प्रेमरतिपूर्ण धैर्य की वार्ता केवल श्रीवृंदावन रसिकाश्रय से ही संभव हो सकती ना...जहाँ अति सुघड़ सलोनी प्यारी जू संग प्रियतम मनमोहन सुख शय्या पर विराजित होकर भी धैर्य धारण कर पाते और सजल नेत्रों से सुकुमारी प्यारी जू के गहन प्रेमस्वरूप को निहारते हुए...जहाँ प्यारी देहाध्यास बिसर जातीं...वहाँ रसिक अनन्य प्रियतम अपनी समस्त कामनाओं के वशीभूत हुए भी प्यारी जू के प्रेमावेश में एक इशारे मात्र के याचक बने रह जाते...
रसयाचक रसप्रवीण रसीले प्रियतम पर प्यारी जू का धैर्य और धैर्य पर फिर जो अनंतकोटि गहन प्रेम की रसवर्षा होती...उसमें भी प्यारी जू की ही जीत होती और प्रियतम प्यारी जू के इस धैर्य के भी पुजारी बन उनके बलिहारी जाते ना अघाते...
सर्वगुण सकुशल हमारी प्यारी जू के अति रम्य सुरम्य प्रेम व धैर्य के खेल में प्रियतम एक दो बार नहीं अपितु अनगिनत बार हार जाते और प्यारी जू के धैर्य की सराहना करते उनके चरणों में लोटने लगते...अहा... ... ...
इतने पर भी प्यारी जू का धैर्य और निखरता जब वे हियवासित प्रियतम की ही चाहना को शिरोधार्य कर अपने सुकोमल पदकमलों की सेवा की याचना करने पर उन्हें इसकी भी अनुमति दे देतीं...स्वयं को प्यारे के कैंकरत्व में भी ना चाहते हुए परम प्रेमभक्ता धैर्य धारण कर लेतीं...
यह सहज ना होगा सखी...प्रेम पुजारी बने प्रियतम प्यारी जू के चरणों को अपने प्रेमाश्रुओं से सींचते और कभी उनके चरणों पर जावक रचना करते...फिर उन्हें अपने आँचल से सहलाते दुलराते भी...और हमारी धैर्यधारिणी श्यामा जू प्यारे जू के इस प्रेम को भी शिरोधार्य कर स्वयं सेवानिवृत्त होकर उनकी रससेवा का सहज पान करतीं...
ऐसा इसलिए कि वे धैर्य धारण करतीं भी प्रेम में प्यारे की दीनता के वशीभूत सदैन्यता भी धारण कर लेतीं...कभी वे स्वामिनी स्वरूप महाभावा होकर प्रियतम सुख ही निरखतीं तो कभी अपने को किंकरी मान उन्हें रसपान करातीं...हमारी भोरी सुकुमारी अति धैर्यशालिनी प्राणप्रियतम सुखार्थ उनसे सहज द्वैत अद्वैत...का अनोखा प्रेम करतीं भी और पूर्ण धैर्य से प्यारे जू की प्रीति सेवा व निष्कामता को निभातीं भी....कभी किंकरीवत् तो कभी महाभाव स्वरूपिणी धैर्यवश परस्पर नेहवर्धन ही होता सदा... ... ...
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!

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