*सुमर्यादित सुश्री सुनन्दिनी श्यामदुलारी श्रीश्यामा जू*
"यह अचरज देख्यौ न सुन्यौ कहूँ नवीन मेघ संग बिजुरी एक रस।
तामें मौज उठति अधिक बहु भाँति लस।।
मन के देखिवे कौं और सुख नाहिंने चितवत चितहिं करत बस।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी बिहारनि जू कौ पवित्र जस।।"
कुछ मंद मंद कुछ मधुर मधुर...अति मधुर सखी री...अहा...बर्णह्यौ ना जाए...ऐसो रस वेणु को रव रव मधुर महकती श्वासों का स्वर बन कर्णरुंध्रों से मनचित्त को क्षुधित कर मन के स्पर्श से विचलित थिरकता बुद्धि के द्वार को खटखटाकर रोम रोम से उतरता छलकता हिय में बसकर नयनों से बहता हुआ उमँग बन नव नव नूतन रसस्राव सा पुलकायमान करता उमड़ घुमड़ रहा है पर मर्यादित...सुमर्यादित रसीला रंगीला ये सुललित रस जो पियप्यारी जू का रूप स्वरूप सुकमलिनी सम नीलम नीलम मधुर मधुर समाता चला जा रहा है...अद्भुत... ... ...
ऐसा रस सखी री...कि लीलारस में बंधे सिमटे रसीले राम सिया के राम हो गए और कृष्ण राधिका के...किंचित मात्र भी कोई अंतराय नहीं...अद्वैत...अद्वितीय घनीभूत रस...
गोपी जो कृष्ण प्रेम में पगली दीवानी सी हुई वन वन डोलती फिरती थी... *नींद आलि तुझे बेचूंगी* ... *विरहणी पीर प्यारी जरै* ... *जोग कहाँ राखूँ* और *का करि रिझाऊं रे रसिया* ... वह जान गई कि यह सब भीतर मधुर सुभाव जो कभी धधकते उफनते और कभी माधुर्य में नृत्य गान करते...इनकी ठौर एक ही...जो मर्यादा स्वरूप महाभाव से राधाभाव बन भीतर समाकर ऐसे निश्चल उतरता कि मनचित्त सर्वकलाओं का विसर्जन होकर प्यारी जू में समा जाता...अहा...प्राणप्रियतम की सुखद अनुभूति इसी मर्यादा की पगडंडियों से शनैः शनैः पग पग धरती और एक दिन उन गौरचरणारविंदों की नूपुर की ध्वनि बन पियहिय की रीझती रिझाती मधुर ताल बन परमसुख पाती...इसी मर्यादा में बंधी श्रृंगारित गोपी सखी स्वरूप पाकर सुमर्यादित प्रियाप्रेम में बंध जाती और प्रियतम सुखानुरूप प्यारी जू की सेवारत मग्न हो मर्यादित हो जाती...अविचल अडिग प्रेम प्यारी प्रियतमा जू का जिसमें रंगे स्वयं प्रियतम श्यामसुंदर भी कभी कैंकरत्व में प्यारी जू के स्वरूप में ढल कर ही अतिरस में भीगे सुख पाते... ... ...
और रसिकन की कृपाकोर की स्वामिनी हमारी ठकुरानी सुकुमारी लाड़ली जू हो जातीं...अहा... ... ...
सखी री...परम सुख परमानंद कब भीतर घुलमिल जाता कुछ बोध ही ना पड़ता...मंद मंथर सुमर्यादित गतिशील...जैसे कोई मधुर मधुरातिमधुर रसोत्सव प्रवाह नाद बन हिय में उतरते उतरते ऐसो घुलमिल जावे कि कब रस की मर्यादा भंग हुई और कब नीरव प्रवाह सुक्ष्मातिसुक्ष्म रोम रोम से प्रस्फुटित होता सहजता सजलता से मौन सुमर्यादित हियमकरंद बन महक सम मंद विहरन करने लगा सुषुप्त रगों में...ऐसे जैसे भावप्रवाह कब से दमन सा पड़ा था और धीमे धीमे विदग्ध से मर्यादित भीतर बहने लगा और आनंद स्वरूप में परमानंद की अविरल अनुभूति जो प्रियतम हिय का श्रृंगार होकर प्रिया जू रूप में संवरित सुसज्जित मर्यादित हुई बह चली...नित नव रसधारा सी...
सखी...कल्पित मर्यादा नहीं...अविरल स्वछंद रस की निर्मल धारा रूप प्रवाह का आरम्भ होता जो वेणुरव सा कर्णरंध्रों से होते हुए हृदय तक जाता और जहाँ जहाँ से गुजरता विहरता तहाँ तहाँ रसप्रवाह की थिरकन ठसकन को मौन...शांत करता जाता जो विदग्धता से सुमर्यादा तक की यात्रा को मधुर मधुर करता हमारी प्यारी जू की रसीली मधुर्यता से...
श्यामसुंदर का ये वेणुरव अति रसीला हठीला सा होकर भीतर उतरता कि स्वयं श्यामसुंदर रस में बहते गति विस्मृत कर जाते पर हमारी प्यारी जू इन्हें संभालतीं और स्वयं वेणु होकर इनकी रसतृषा का संचालन अति नेह से करतीं इन्हें स्वाभाविक अपने सा ही मर्यादित कर लेतीं...
विदग्धमाधवे का मधुर और तीव्र प्रेम जैसे प्रियतम सुखानुरूप ही हुआ कभी लावा सा दहकता और फिर धीरे धीरे शांत होते होते विदग्ध को भी शांत करता जाता...
ऐसा लावण्य...ऐसा प्रेम...गहन...प्रगाढ़ जहाँ रसतृषित चकोर गौर सुनहरी चंदा की रसीली गर्बीली चाँदनी में भीगते भीगते स्वतः सिमट जाता और मर्यादित शांत निहारन निहारन में सेवायित होकर श्रृंगार की क्षुधा की क्षुधा को शांत करता...अहा... ... ...
ऐसा मधुर नेह स्पर्श हमारी स्वामिनी पियप्यारी किशोरी माधवी सुललित सुमर्यादित श्यामघनदामिनी श्यामा जू का...कि...कि सखी री...जड़ को चेतन और चेतन को मधुर करता...रसजड़ता से रस के सागर सा उमड़ कर भीतर समा जाता जहाँ फिर मिलन ही मिलन होकर प्रतिध्वनित प्रीति की उत्तालतरंगों को रसीली सितार की तान सा छेड़ता और रगनाद बन समाता भीतर ही भीतर...ललित...सुमर्यादित...हमारी रसाचार्या...प्रेम पंडिता प्यारी सुकुमारी श्यामा जु का अकिंचन भावरस बन...जो क्षुधित समुद्र सम श्यामसुंदर को भी बाँध लेता अपनी सुमधुरता में...गहनतम...रंगीली के रंगीले की छवि मिलितनु और शांत मर्यादित सी श्यामा जू के स्वभाव सम चकोर नयनों की क्षुधा को शांत करती...जयजय... ... ...
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!
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