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धैर्यशालिनी श्रीलालन सुखदायिनी "उज्ज्वल श्रीप्रियाजु"

*धैर्यशालिनी श्रीलालन सुखदायिनी*

"जो कछु कहत लाड़िलौ लाड़िली जू सुनियै कान दै।
जो जिय उपजै सो तिहारेई हित की
कहत हौं आन दै।।
मोहिं न पत्याहु तौ छाती टकटोरि देखौ पान दै।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी जाचक कौं दान दै।।"

*धैर्य* ...अहा...कितना मधुर लगता है ना यह धैर्य शब्द...एक प्रीतिक्षण वर्धमान रसधारा जो निरंतर निर्मल बहती भी और थम थम कर संभलती सहजता सजलता से...एक प्रेम वाणी हिय की जो मौन रह रसनिर्झरन भी करती और संकुचित भी...
सखी री...पर ऐसा धैर्य सुना ना देखा जाता अन्यत्र कहीं...इसका वास जहाँ सहज उद्घित निश्चल निष्पक्ष निरपेक्ष प्रेम...वहीं...वहीं...बस वहीं... ... ...
अब यह कहीं भी संभव कहाँ...क्योंकि सांचि प्रीति कौन निभाह्वै...कोई ना री...
ये सहज प्रीति केवल और केवल भक्त और भक्तवत्सल भगवान में ही हो सकती है सखी...निरख यहाँ वहाँ कहाँ ऐसा धैर्यशाली प्रेम है जहाँ भगवान स्वयं धैर्य हीन हुए भक्तवत्सल्ता के वशीभूत दौड़े चले आते नंगे पग...आह... ... ...सर्वसुखदायी... सर्वनिधियों के पालक...निहंता अहंता के सर्वहितकारी हमारे प्रियतम श्यामसुंदर...ऐसे प्रेमपाश में बंधे सदैव कि जहाँ उनकी भगवत्ता हार जाती और धैर्यहीन हुए वे स्वयं दास होकर भाग चलते...ऐसी दैन्यता और धीरता प्रेमी हियप्रसून लाल जू की...
हाँ...सही समझी सखी री...सटीक...
आलि री...ऐसा प्रेम और कहीं सर्वत्र जगत में नहीं जहाँ भक्ति के वशीभूत हुए भगवान विदुरानी के कर से छिलके का सेवन करते हैं और उससे अधिक स्वयं अधीरमना उनके नेह से सजल हुए नेत्रों का रसपान अपने कमलदल क्षुधित लोचनों से कर रहे हैं और...सुदामा...भरत...व भक्त हनुमान जी की प्रेम गाथाओं का तो क्या ही बखान करूँ...सजल हुए नयन...अधर भी भीगे हुए वह परमावधि भक्त संजीवनियों में तनप्राण मन सहित डूबे रह जाते...आह... ... ...ऐसी प्रेमभक्ति...या परमानंद की परमातिपरम रसविभूतियाँ...करमा बाई...मीरा बाई सा...सदैव प्रतीक्षित रसवल्लरी शबरी जी...और अनंत ऐसे भक्त जिनके प्रेम के वशीभूत प्रियतम श्यामसुंदर बावले से...धैर्यहीन होकर दौड़े...
सखी री...और अगर यहाँ ब्रजरसिकों की बात कहूँ तो... ... ...नि:शब्द...एक अति दीन मौन ही धर मन उतवाला बैठ हो उठता...ऐसे रसीले छबीले प्रेमभक्त ब्रजवासी कि प्रियतम गलियारों में डोलते फिरते कि कहीं कोई रसिक संत की सेवा करने का आनंदसुख मिल जावे तो रसधनी हो जाऊँ...पर ये रसिक ब्रजसंत तो क्या यहाँ का रजकण भी उनकी पदचाप में मतवाला हुआ निष्काम भक्ति में डूबा है...और तो और श्रीधाम रसपद्धति पर लेशमात्र निहार सकूं तो सखी री...सखा प्रेम...गोपी प्रेम...यहाँ तक कि प्रत्येक ब्रजलता ब्रजरजकण ब्रजजीव परजीव सदैव सदैन्यवत् प्रभु की सहज धैर्यहीनता का गान करते ना अघाते...दंडवत् प्रणाम ही कर सकूँ...कुछ कहना और श्रीधाम की चौखट तक को निहारना मेरे सामर्थ्य की बात नहीं...एक चाह अवश्य है कि कभी वहाँ जाकर इन सबको मस्तक नवा सकूँ...इससे अधिक ना कम...कोई प्रणय नहीं री...
आलि री...तू सोच रही होगी ना मुझे चर्चा तो *धैर्य* की करनी पर यहाँ धैर्यहीन रसाधीन प्रियतम का चिंतन ही हो रहा...
हाँ री...पर मात्र चिंतन ही हुआ ना...अभी इस अचिन्तय चिन्तन में गहराया तो नहीं...अचिन्तय इसलिए क्योंकि यह चित्त से साधे ना सधे ऐसा धैर्य है और चित्त सध सके वो माधुर्य चिंतन हो ही नहीं सकता ना...पंगु पड़ जाती बुद्धि...मौन चित्त...और अताल रसतरंगों की गहराइयों में मन प्रेम पंछी बन बस उड़ान सी भरकर नि:श्वास बावरा ताकता...
ऐसा प्रेम जहाँ अधीर को धीर बंधाना भी एक कला और तत्सुख भाव मात्र ही नहीं...अपितु अनंत रसों का गहनतम रस है...जहाँ अधीरमना श्रीप्रियतम का भी धैर्य उनके सुखहित बखूबी निभाया जाता है...
सखी...ममत्व में बंधी माँ जानती है कि शिशु को कब क्या चाहिए और कितना...जैसे माँ यशोदा लला के रसाधरों से स्तन छुड़ा लेती है ताकि लाल को अपच ना हो जाए और अतिनेह में लाड़ लड़ाने के संग संग कितनी बार लला के प्रेम में आसक्ति होते हुए उसे ऊखल से बाँधती है और छड़ी भी लगा देती हैं...बलिहारि जाऊँ...हाय... ... ...वारि वारि जाऊँ री लाल की नन्ही नन्ही प्रेम भरी रसाट्ठकेलियों पर जिसने मईया को तो भिगोया ही और गोपियों को भी अत्यधिक ललचाया...अहा...दैव को भी रसलोलुप बनाया कि रसिया के वशीभूत हुए सदाशिव भी दौड़ पड़े कैलाश तज...नारायण अकुला उठे कृष्ण वियोगिनी गोपीविरह व्यथा निरख...ब्रह्मा इंद्र चंद्र सब चेत गए प्रेम की अनोखी थिरकन पर...
पर इस सबसे भी अतिहि गहन माधुर्य रस की बेमिसाल धैर्यशालीनता की राशि हैं...सखी री...यहाँ अभूतपूर्व माधुर्य वात्सल्य रस श्रृंगार लावण्य से घनीभूत एक और प्रेम की गहरी चाल है जहाँ प्रियतम अपना धैर्य खो बैठते...वह प्रेम जो सखियों के हियप्रसूनों से महकता खिलता हुआ हमारी अतिशय धैर्यशालिनी किशोरी प्यारी राधा जू का है...
*रसो वः स्व* ...प्रिय को यही संबोधन दिया जाता ना...पर सखी ये अनंतगुणी रससुधा जहाँ बहती...जो अथाह रससागर प्रिय को भी सहजता से भरन पोषण के लिए ही प्रतिक्षण उमगती घुमड़ती रहती...वह हैं...हमारी सुनयना सुरतरंगरंगिनी प्यारी दुलारी श्यामा जू...हा... ... ...
*जेहिं विधि रुचि प्यारे लालन कौं,तेहिं तेहिं सुख दीनो*

जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!

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