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गाम्भीर्यशालिनी श्यामा उज्ज्वल श्रीप्रिया संगिनी जु

*गाम्भीर्यशालिनी*

"भूलै भूलै हूँ मान न करि री प्यारी तेरी भौहैं मैली देखत प्रान न रहत तन।
ज्यौं न्यौछावर करौं प्यारी तोपै काहे तें तू मूकी कहत स्याम घन।।
तोहिं ऐसें देखत मोहिंब कल कैसे होइ जु प्रान धन।
सुनि श्रीहरिदास काहे न कहत यासौं छाँड़िब छाँड़ि अपनौ पन।।"

सिंहनी का दूध कुंदन के पात्र में ही समा सके ना सखी...और कोई धातु ना भर सके...और ना सहेज सके इसे...
आलि री...अब पहले तो पात्र भरने के लिए ही कुछ ऐसी बुद्धि चाहिए कि सिंहनी उत्तेजक ना होकर प्रेरक बने...इतना आसान तो नहीं ना...
एक बालक जिसे तनिक भी समझ ना है और उसे माँ के अलावा कोई समझ सके ऐसी समता सामर्थ्य भी और किसी में ना होवे...अब कोई अत्यंत रसीला हो और उस छलकते रसीले को रस की चाह ही उत्कण्ठित करे तो उसके रस को बिन चखे कोई अतीव रसीला ही उसे सहेज कर और भरे ना...ना समझी ना...
अरी... इतना सरल होता प्रेम तो अपात्र भी भर लेता...पर स्वयं को रिक्त कर भर पाने के लिए अहम् का त्याग भी हो और तत्सुख की अहमता का गहनतम प्रेमभाव भी...अहा... ... ...
पर ऐसा सम्भव क्या ?
नहीं ना...तो पात्रता हांसिल करना और उसे सहेज कर रखना कोई लड़कपन या खेल तो नहीं री...ऐसी पात्रता जिसमें सहेजने के साथ साथ लुटाने बहाने का भी भाव हो और गम्भीरता ना हो... !असम्भव...
सखी री...भक्त और भगवान में भी अनंत गहन रसभाव छुपे होते...पर देहाध्यास संग कई स्वार्थ भी और कुछ अहंकार भी...तो भगवान भक्त को कितना भी देते रहते पर एक समय तो ऐसा आता ही ना...कि भक्त कह दे...बस प्रभु...अब और कुछ नहीं चाहिए...यहाँ एक तृप्ति रहती...दोनों तरफ से संतुष्टि...
इससे ऊपर की बात करें तो एक है प्रेमभक्ति...जयजय... !जहाँ भक्त भगवान से कुछ नहीं चाहता...पर कुछ दे सकने की भी अपात्रता उसमें...सो एक ठहराव...मौन सा पसरा रहता...अतृप्ति भी और उत्कण्ठा...व्याकुलता भी...आह...दैन्यता...
अब इन सब से परे सखी री...एक है मधुर भक्तिभाव...जिसे भक्ति कहना भर भी जैसे खेदपूर्ण अभाव ही प्रतीत होता...अरी...यह वह मधुर रसपथ है जहाँ भगवान अपनी भगवत्ता को भूल प्रेमभक्ता के सहज त्याग पर रीझकर उसके पीछे डोलते फिरते और इस डोलन में भी रस तो है पर परस्परता नहीं ना...क्योंकि गाम्भीर्यता नहीं...
गाम्भीर्यता वहाँ होगी जहाँ रसिक शिरोमणि की ताड़ना प्रताड़ना भी हो और रस की हितरूप भरमार भी...अहा... ... ...
तो सखी री...ऐसे गम्भीर विषय पर वार्ता करने की पात्रता और गम्भीर रसपिपासु को रस चखाने की सुपात्रता केवल और केवल हमारी भोरि किशोरी पर गाम्भीर्यशालिनी सुकुमारी प्यारी जू में ही हो सकती...जयजय.... !
जहाँ प्रियतम का ही सुख रसप्रधान हो वहाँ सखियाँ भी प्यारी जू की तरफ दीन होकर निहारती हैं और रसप्रफुल्लित रसलुण्ठित होकर गाम्भीर्यशालिनी की नखप्रभाचंद्रिका की रसकांति की ओर...
प्रेम के पूर्ण अथाह गहनतम रससागर रसिकशिरोमणि के प्रेमवर्षण और माधुर्यरस को उछलने से कोई सपात्र ही स्वयं को रिक्त कर सहेज सकता...और इसके लिए चाहिए गम्भीरता...जो प्यारी स्वामिनी जू ही सहजता से सहेज लेतीं भीतर...
सखियाँ प्यारी जू को अनंतानंत रागानुराग रसीले सरसीले श्रृंगार धरातीं और अत्यंत रंगीले सुंदर खेल भी खिलातीं...पर प्यारे प्रियतम हर बार प्यारी जू से कभी रसीले रंगीले तीक्ष्ण रसप्रहारों से तो कभी मात्र भृकुटि विलास से हार ही जाते...प्यारी जू जानतीं भी कि प्यारे प्रियतम प्यारी जू की हार नहीं भी देख सकते सो जीतते जीतते हार जाते तो इस पर भी गम्भीरता से प्यारे की तरफ नेक सी पलक झपकन ही प्यारे को जीतने के लिए रसातुर कर देती...और तब अहम् खेल आरम्भ होता गम्भीरता और सरलता का...जहाँ प्यारे जू रसपिपासु होकर पिपासा...तृषा संग ही खेल रचते...अहा...
अब छलकते मधु को पहले भरना फिर उमग उमग कर बहाना उंडेलना...रस भी...छलकन ढुरकन भी...और सहज गाम्भीर्यता से सहेजन भी...मधुर खेल री...प्रेमपात्रा श्रीश्यामा जू में प्रिय का रस और प्रिय में प्यारी जू का सरस रस...ऐसी प्रेमसुनामी संग्रामिनी हमारी प्यारी जू कि प्रियतम मधुमेह से भर भर कर छलकते ना अघाते और प्यारी जू छलका छलका कर भी रिक्त होतीं ना अघातीं...प्रियतम प्यारी जू पर रीझ कर प्यारी ही हो जाते और प्यारी जू तृषित चकोरवत् प्यारे को रसपान करातीं अधीर ना होकर...अति गाम्भीर्यता से प्रियतम ही ना हो जाएँ ऐसा सहज रसखेल खेल जातीं ताकि प्रियतम सुख में कहीं कोई खलल ना पड़े...प्रिय को रस की कोई हानि भी ना हो और उनके गहनतम क्षुधित होने में प्यारी जू प्रिय होकर उन्हें किंचितमात्र खेदाभास भी ना कराएँ...अहा...
सखियाँ भी गाम्भीयशालिनी हमारी सुकुमारी प्रिया जू का अत्यंत गहनतम प्रेम देख सजल नयन मूँद लेतीं हैं और उन्हें मूक निहारन से हियप्रसूनों की सेज पर एकांत खेलने देने में आनंदित होती हैं...चंचलता समक्ष गाम्भीरता...अनन्त कोटि रससिंधू की रसतृषा...और रस स्वयं रस में डूब रस की सेवार्थ ही बहने लगे...ऐसा सुंदरतम प्रेम और रस गाम्भीर्य... !!
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!

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