*अजहूँ कहा कहति है री.....*
*.....तू ही जीवन तू ही भूषन तू ही प्रान धन......*
*कृष्णकर्णिका*
'कृष्ण तन कृष्ण मन कृष्ण ही है प्रान धन ' ,,,, यही शब्द गुंजायमान थे हृदयस्थ .....तन मन धन ....तन मन से तो भलीभाँति गहरी आत्मियता है हमारी....सो इनके प्रति कुछ ना कहूँ तो बेहतर....परंतु धन...यहाँ उस धन की वार्ता ना हो रही जिस हेतु हम अपने तन और मन के भगवदाह्लादित हार्दिक हर्षित नित्य स्वरूप को विस्मृत कर चुके हैं । यहाँ बात हो रही उस अति सघनतम दिव्य धन की जो रससुधा स्वरूप हमारे तन मन में निरंतर नवरसीला नवरंगीला हमारी चेतना होकर समन्वय हेतु संचरित पुलकित हो रहा....जिसे हम बुद्धिजीवी यंत्रवत् मान रहे वह वैसा जड़ है नहीं सखी...सहज द्रवित वह भावित भीतर बह रहा !!
आत्मीय होते हुए भी हम उससे मुख मोड़े हुए देहरूपी बीहड़ वन के अनुरूप विचर रहे....अपितु हमारा बहाव अंतर्मुखी होना चाहता....उस बेलगाम बिहरन से बीहड़ वन में सुखसेज होने को नित्य उत्सुक...उत्फलित...परंतु हमारी आत्मियता हमें बहिर्मुख कर रही विपरीत परिस्थिति में.... !! तो आवश्यकता है मात्र भीतर उस मौन संग मौन होकर निहारने की ...संभवतः प्रीति को अपना आहार बनाने की...तब सजेगी ना नित्य नवरस सुखसेज सखी जू...आँचल भर लाई हो लता वल्लरी रससौरभित कुंजों से तो दासी को किंचित रसास्वादन में डूबी मौन भई कोमल शहदसनी रसना से रस चखा दो ना सखी जू...श्रवणपुटों को स्वाद चख जो नित्य रस चाटने की लत लग गई है उसकी स्पंदित पुलकित रोमावली को मधुर रसाहार दे जड़ता से उबार लो ना....करबद्ध नित्यवर्धित याचनाओं के स्पंदन को तो आप सहज ही महसूस कर लेती हो ना सखी जू... ... ..
तो विषय से भटकन ही तो अंतर्मुखता का बहिर्मुख विश्व भ्रमण है ...जो सखी जू हेतु तो अनिवार्य है अर्थात युगल पथ पर मीठी सी परंतु सजल पुकार जो क्षुधित की स्थितिस्वरूप व्यंजना है....परंतु बहिर्मुखता जहाँ युगल सुख ना हो वहाँ मात्र पीड़ा का ही खेल...
सखी ....तन मन धन सब कृष्ण ही ना...कृष्ण ही सर्वत्र अंतर्मुखता को बंदी बनाए हुए ...अपनी चिरसंगिनी की खोज कर रहे थे रोम रोम से उठती वेणुतरंगों से...परंतु खोज कहाँ पूरी हुई उस तृषित की .... जहाँ उस संचित धन ने ...उस निधि ने जो सुषुप्त पड़ी थी...उसने देहरसघन के भीतर किंचित सी निहारन से जैसे उत्पात ही मचा दिया....तब तो एक एक कर समस्त रंग अंतरात्मा के सज्य होने लगे...समस्त विकारोन्मुख बहिर्गमन के द्वार स्वयं बंद ही हो गए...तब जैसे उन मधुसूदन को वो दिव्यातिदिव्य रसनिधि की सौरभ ने घेर ही लिया...और देहविस्मृति में अंतर्मुखी होकर परस्पर बंदी हो गए...सब और से सिमट कर...ना कोई बाह्य विहरन ना ही कोई विरह की स्थिति ...पा गए जैसे उस महाएकांतिक अंतरंग रससुधानिधि को जिसे वे स्वयं संजोए हुए थे भीतर परंतु चेतना को अनुभूति करवाना शेष था....
तो लो....हुआ ना कुछ कुछ...अनुभव ,, अनुराग ,, अनुसंधान ,,, सब खोकर एकरस में बह चले...क्या थी वो दिव्यनिधि ...राधा राधा राधा .....
*तैं मेरो लाल मोह्यौ री साँवरौ*
सखी...कारे पर जैसे उज्ज्वला कौ सिंगार भयो...कारो कारो सो मेरो मन भयो...उज्ज्वलता कौ रस चखाए दियो और हर लियो...अब जित जित निहार रही तित तित कृष्ण कृष्ण होय रही...उज्ज्वले पुकार रही...
*आँखि मूँदि रहौं तौ लाल निकसि कहाँ जाहीं*
हर लियो भोरो सो मन और है गयो प्रानधन ...उज्ज्वल सिंगार धर ...अब कहूँ ना जाए सकै जैसे
*दृष्टि चेंप वर फंदा मन पिंजरा राख्यौ लै पंछी बिहारी*
अहा !! यही तो तृषा थी ना ...यही तो पुकार थी भीतर...उज्ज्वलता की ...गौर रंग सज्य है गयौ कारे तन पर....निधि सज रही निधि के मतवारे अनियारे रतनारे नयन रूपी कजरारे श्यामल मन पर...
तेजपुंज होता ना जैसे ...अरी सिद्धपुरुषों के मुख पर सदा सिद्धता का प्रकाश विद्यमान रहता...कैसे सुखद सकारात्मक परमाणु झरते उनके नयनों से...वैसे ही सखी परमधन को पाकर उज्ज्वलता झर रही कारे पर ...मोह लियो...हर लियो री....
बालक के मुख पर हम माँ की झलक निहारते ना वैसी झलक पड़ रही उज्ज्वला की भोरे चंचल मन पर... गौरता नृत्य कर रही जैसे साँवरी नयनपुतरी होकर...नित्य नव रस एकरस हो रहा....उज्ज्वल हो रहा सखी...निहार तो कारे की मुखछवि...समस्त सिंगार कनकरंग...समस्त वस्त्र गौर...आभूषण आभरन आभामंडल पर उजले उजले से...कोमल सजीले होकर...शीतल सुनहली सुनील छटा बिखेर रहे...बिहारी बिहारिनि हो रहे...तन मन धन कौ भेद ना रह्यौ...ऐसो बंधन बाँधे अंतःकरण में बिहरते हर्षित पुलकित कि सुधि बिसर रही सखी जू...कहाँ ते आरम्भ कियो...कहाँ ते समाप्त हुयो...विषय विस्मृति में सजल कम्पित से कोमल कर और फुरकते थिरकते अधर... ... ...आह !!
मात्र कृष्ण कृष्ण स्वर होकर कृष्णकर्णिका मधुर रस घोल रही कर्णप्रिय रसध्वनि होकर भीतर रससुधा सी दौड़ रही सखी...जैसे अपने ही कर्णफूल की सौरभ से बहक रहे श्रवनपुट ,,,और जैसे ,,, रसीली मधुरता में ऐश्वर्य विस्मृत कुण्डल किंणकिंण ध्वनि को सुन रसमुग्ध हो रहे.... .... ...
*हरयौ री मन मौर*
उज्ज्वले ने हर लियो अंतर्मन में बसे लाल को...और वो राधे राधे रट रहा....मंत्रमुग्ध रस में कर्णपुट जैसे शहद में रसिकचरण ऐसे डूबे कि छुड़ाए ना छूट रहे...तृषित मन चाट चाट ना अघा रहा...रसोन्मत्त अंतःकरण में उज्ज्वल निधि पाकर बिहर पुलक रहा...
तन और मन को सच्चा धन ....मिल गया हो जैसे सखी... ...अहा .... !!
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
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