*तू रिस छाँड़ि री राधे राधे*
*वाणी पाठ क्यों ???*
भक्ति महारानी जू मानिनी भई सखी जू ,,,, उसे मनाना है उसे पाना है,,,, उसे ,,, जिसके लिए ये सगरे खेल सजे हैं ,,, लीलाएँ सजी हैं ।।
हम अक्सर चाहते उसी परमानंद को पाना जिसका अंश हममें आनंद होकर जी रहा ,,, जिस आनंद की अगर स्थिति प्रगाढ़तम गाढ़ न हो तो हम विचलित रहते ,,,कामनाएँ पीछा नहीं छोड़तीं ,,, आनंद की खोज तो स्वतः खेल रही परंतु उस तृषा की सुधि हम बिसर चुके और अन्यत्र तलाश रहे ।।
तो आखिर वाणी पाठ या शरणागति निज मंत्र ही सहायक क्यों सखी ??
लगता ना कि पाठ करने से मन को शांति मिलती ,,,,पर क्या मन पाठ के दौरान शांत होता क्या ??
नहीं ना !! तो प्रश्न उठता पाठ क्यों ??
सखी ,,, साँप के डसे को भी सिद्ध पुरुष मंत्रोच्चारण से नवीन जीवन प्रदान कर सकते परंतु अगर वो जीव जीने की कामना ही खो चुका हो तो मंत्रोच्चारण भी काम नहीं आते क्यों कि उसके जीवन में तृषा का अभाव था । कामना का खो जाना जहाँ हम वरदान मानते ,, वहीं अगर परमानंद की खोज हेतु भीतर भाव ना हो तो ऐसे जीवन को पुनः पाने की लालसा ही कहाँ शेष रहती ?? सखी सत्य मानो !समस्त लालसाएँ पूर्ण होकर समाप्त ही हो जातीं परंतु एक ही भगवद दर्शन की लालसा हमें पुनः पुनः जीव होने हेतु नित्य सज्य करती ।
हालाँकि इस प्यास को हम पहचान नहीं पाते परंतु यही सत्य है कि परमानंद को प्राप्त कर लेने पर ही सब कामनाएँ सकामता से निष्कामता की ओर अग्रसर होते होते प्रभु से मिला देतीं । यही पुनर्जन्म होता जीव का जिसके लिए वह धरा पर आता ।
अब वाणी पाठ ही वह मंत्र है जिसके नित्य प्रति उच्चारण मनन से हम उस परमानंद की खोज को नित्य नव स्वरूप देते ।
जानती हूँ पुनः पुनः जन्म लेते हम निर्दोष जीव जाने अंजाने परमानंद पाने के पथ से भटक भी जाते और अत्यधिक गहरी परिस्थितियों में हमारा स्वभाव कुछ कटु से अधिक कुटिल भी हो जाता परंतु इसी कटुता पर जब नित्य प्रति वाणी पाठ की कोमल पर्तें सजती जातीं , ,,,, सौरभित सुगम सहज कोमल प्रियाप्रियतम के प्रगाढ़ प्रेम की पर्तें तो वो कटुता स्वयं कोमलता तले मौन धर लेती । अति व्याकुल आकुल होकर बहुत बार उग्र भी होती अवश्य परंतु तृषा उसे बार बार कोमलता में भिगो देती ,,,, कोमलता चाशनी से जब शहद होकर कटुता को ऊपर आने से रोक देती तब सखी ,, तब इस वाणी पाठ में हम पूर्णतः भीग डूब चुके होते अहा !!!
अतः यह नित्य कोमल प्रियाप्रियतम की रसीली रंगीली केलि विलास से सजीं ,,, वाणी में छुपीं ,,, रसतरंगें सौरभित सुगंधित हमें नित्य युगल रस में तल्लीन विलीन करतीं ।।
सखी ,,, श्यामसुंदर प्यारी राधारानी जू के रसतृषित हुए अनंत स्वरूप धर कभी रसिक तो कभी किंकरी ,, कभी युगल तो कभी तृषित हो जाते ,,, स्वयं दासत्व में डूबकर सखियों संग प्रिया जू की मान मनुहार करते ,,, यही तो हमें भी करना ना ,,, भक्ति महारानी को मनाने हेतु ,,, परमानंद को पाने हेतु ,,, नित्य वाणी पाठ ।।
नित्य प्रति परिस्थितियों से उभर कर नित्य नव खेल में नव कामनाओं को सजाने हेतु जो मात्र युगल सुखानुरूप हों तो कटुता का रसप्रगाढ़ता के कोमलत्व स्थितियों की महक तले स्वतः रंगमंच बनकर रह जाना अनिवार्य ही है ,,, तभी तो कोमल सेज पर युगल केलि विलास सजेगा ,,, अहा !!
तो सखी नित्य वाणी पाठ अर्थात जैविक कामनाओं के कुटिल रंगमंच पर नित्य नव कोमल सुखसेज का श्रृंगार !!!!! जिस पर मात्र युगल खेलें । हमारे खेल पर युगल रसकेलि सजे !!यही कामना ,,यही याचना ,,, यही पुकार ,,, बस यही रस ,,, *वाणी पाठ* जाने कब होगा सखी जू ????
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास !!
Comments
Post a Comment