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इत उत काहे कौ सिधारति आँखिन आगे , सँगिनी जू

*इत उत काहे कौ सिधारति आँखिन आगे.....*

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कितना चंचल , कितना भोलापन , कोमल  है ना यह मन.... कितने ही एकाग्रता के मंत्र पढ़ाए सिखाए जावें इस अति कोमल मन को.... कितना ही बहलाया फुसलाया । परंतु अत्यधिक एकांत पर भी इसका चैन कहीं खोया सा रहता ना... गहन सघन प्रयास , गाम्भीर्य से बाँधने के , परंतु चंचलता को गाम्भीर्य भी बेड़ियाँ पहनादे , यह कैसे सम्भव ना....
अरी सखी...जे ना बहले , ना समझे , मुद्रा में बाधित कर एकाग्र करना चाहा तो मुस्करा दिया ... अब हंसेगा ही ना , गोपीचंद ध्यान की विधि तो कभी ना सुहावै !
तो आखिर क्या कर हिय कुंज सजाऊँ..... का कह इस चंचल मन को बहलाऊँ....कौन उपाय ते जे शांत मौन होकर बिराजे....कितनो भी प्रयास कर हारि....ना गई चंचलता , ना खोजा और पाया गाम्भीर्य.... ....
आह !!
आह !सिहर उठती...कम्पित कर जाती ....काहे इत उत डोले रे !!
सजल नयन मुँद जाएँ इतना भी ना एकाग्र हो पाता.... , स्वतः बह जाते...तब किंचित मात्र इस मन को पिघलाना चाहा...जाना कितना सहज सरल है....चंचल मन जैसे कृष्ण है....अहा !!
समक्ष होते ही जैसे मैनन सैनन तें इस भ्रमर मन की दृष्टि पुष्पराग पर गिरी ....तो तनिक सिहर कर निहारने लगा , मंत्रमुग्ध मौन स्थिर आत्मा को , जो इसी पर नजर टिकाए हुए इसकी सेवा करने को आतुर व्याकुल हो रही !
जैसे कह रही....किंचित बैठ तो और निहार इन अश्रुपूरित सजल रसकोर से बहती पिघलती ध्यानावस्था को , कैसा गाम्भीर्य लिए यहाँ महाभाविनी किशोरी जू स्वयं पुकार रहीं भीतर ....
तब ,,,,, तब सखी....मन ने झरते नयनों के अश्रुजल से धुले निर्मल स्वच्छ अक्स को निहारा ....जैसे प्रतिबिम्ब में अपना ही रूप स्वरूप धर विराजित थी वो सुंदरता नागरता की राशि किशोरी ,,, स्थायी भाव की रसखाननी ....अब चांचल्य ने गाम्भीर्यता का बाना ओढ़ लिया ....
और आत्मा रूपी राधारस ने भी किंचित विलम्ब ना किया....धर लिया मन रूपी कृष्ण को....मंजरीवत् सेवायित हो उठी राधिका , मन रूपी श्याम भ्रमर सहजे सहजे सिहरन पुलकन से सिमटने ठहरने लगा....थिरकन थमने सी लगी.... गहन सघन रसधमनियाँ उसे भरने लगीं , शीतल मंद स्पर्श उसे रसबाधित करने लगे....रसगाम्भीर्य चंचलता को हरने लगा ,, हुआ ना !!
हुआ न एकाग्र मन....उसे राधारूपी महाभावित रसपूरित आत्मा की झलक मात्र दिखी सैन मैन भरी तो दृष्टि हट ना पाई ,,,, उसके महाभाव में भरेपुरे मंजरीत्व के समक्ष कैन्कर्य धारण कर विराजमान हो गया !!
अरी यही तो  चाह रही थी ,,,यही कि मिलन हो जाए मन और आत्मा का....और जैसे ही यह मिलन सम्भव होने की कगार पर आया.....तय फासले ने समस्त दूरियों को समेट भर दिया....अब चंचलता खोने लगी...एकरस हो रही आत्मा रूपी स्थायी राधा संग ।।।। ऐसा एकत्व कि मंजरियाँ झर रहीं और किंकरियाँ अपना खेल सजाने लगीं ,,,
स्पष्ट कहूँ तो समस्त समर्पण समर्थन आग्रह विग्रह भीतर भरते भरते हियकुंज सज उठी !!
जहाँ जब राधांश सखी ने भीतर निहारा तो कृष्ण रूपी भ्रमर मन महाभाविनी मंजरीत्व से श्रृंगारित सेज पर किशोरी जू के एक-एक कर सम्पूर्ण समर्पण पर रीझ गया  ....और मन किशोरी जू की मैन सैन , भृकुटि विलासों का साक्षी व प्रेम समर्पित होकर मौन कैन्करत्व धारण कर बैठ गया....

*मृदु मुसिक्यानि भौंह करि बाँकी कछुक टारि मुख सारी।*
*नवल नागरी वर सिंदूर कल कन्दुक पिय हिय मारी।।*
*सहचरिसरन अनूप रूप छबि सुखनिधि सनधि विचारी।*
*जनु अनुरागमई कृत मुद्रा आसिक उर कर धारी।।*

जयजय किशोरी जू की....जयजय रिक्तमना आत्मिक सौंदर्यता माधुर्यता भरी रसमंजरी की...जयजय
जयजय... चंचलमना किशोरवदन रसिकवर श्यामसुंदर की....जयजय मन रूपी भ्रमर की गहन सघन निहारन की ....जयजय
जयजय.... एकरसरूपगंध में सिमटे पुलके मनप्राण आत्मिक महाभाव की ....
बलिहार बलिहार बलिहार  !!
हियकुंज कुछ यूँ ही सज जाती ना सखी ....चंचल मन और आत्मा के सजल गाम्भीर्य के एकाग्रता भरे रसमिलन से.... मात्र मुद्राओं में भर गाम्भीर्य से नहीं ठहराया जा सकता ....ज्ञान की परिधियों के पार स्थिर रस ही मन रूपी कृष्ण को राधारस में सराबोर कर एकाग्रता का पाठ पढ़ा सकता है ।।।।
हाय !!कब यह नित्य स्थिर स्थाई कुंज मेरे मन का हरण कर लेगी....कब मुझे भीतर भर देगी....कब बाह्यरिक्तता मुझे दर्पण दिखाए ,,,,,और जाने कब हियकुंज सजेगी  ?????
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!!

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