*श्रम जल कन नाहीं होत मोती*
*प्रीति वल्लरिका*
पुष्पों को निहारो सखी ....अनंत काल से अनंत तक यूँ ही सुरभित कृपावर्षा में भीगे भीगे सौरभ से भरे सौरभ ही बिखेर रहे ...भावसुमन...अहा ...रसिक वाणियों में भर भर कर ज्यों बिखर रहे...वही बिखरा दो ना सखी जू...मुस्कराते देती हूँ हिय की इस मधुर कामना पर जो सखी जू से कहने कुछ और चलती है पर माँग मधुरता की ही करती है ...समझ रहीं ना आप मेरी पथप्रदर्शिका और हियपत्रिका पर भावसुमनों की सींचिका प्यारी दुलारी सखी जू !!
तो मैं कह रही थी कि यह माला रूपी देह...इस पर सजे ये श्रम जल कन...अर्थ स्पष्टतः युगल हेतु है परंतु हम इन श्रम जल कन की भावस्थिति को अन्यत्र ले जाते ...श्वेदकन ही कहूँगी ...ये अति उज्ज्वल अति निश्चल प्रतिबिंबित श्रम जल कन जो पियप्यारी जू के रसवर्धक होते ...रसाधिके का अद्भुत सुंदर श्रृंगार जो सुरभित सौरभित पियहिय की दिव्य मनि ही है ....सुसज्जित लज्जित संकुचित भावित युगल के परस्पर रसश्रृंगार ....
नहीं समझी ना...तो इन लघु परंतु अति गहन मधुर वचनों को किंचित सैद्धांतिक होकर निहारती हुई विश्लेषण करने का प्रयास मात्र करती हूँ ....अत्यधिक भाषाओं का ज्ञान नहीं है मुझमें सो यहाँ वहाँ ग्रंथों के माध्यम से कुछ संदर्भ दे सकूँ ऐसी बुद्धि नहीं है ....संस्कृत इत्यादि का बोध भी नहीं सो कभी कुछ पढ़ ना पाई ...बस वाचाल है ...बोलना ही जानती ...और बोला भी तब ही जाता जब भीतर भरा हो कुछ कहने को....और पिघल कर छलक जाने को प्याले स्वयं ढुरक जाएँ ....यही होता ना दुलारी सखी जू...तो आज्ञा हो तो सहज कर कुछ कहूँ ??
प्रीति वल्लरिका अर्थात निकुंज भवन की डार लताएँ...जो आँधी तुफान से घिरी होकर अनंत साधन विकल्पों से भी परे तपस्विसिद्ध भावों से भी ऊपर उठकर जा खिलती हैं वहाँ जहाँ उनकी तृषा उन्हें ले जाती कृपावर्षा से सींचित कर....
उस प्रीति वल्लरिका की भोर से संध्या तक की यात्रा सहज ना होती सखी...परंतु रात्रि के मधुर विलास को खोजती उसकी तृषित निगाहें स्वयं पथप्रदर्शक पथप्रकाशक हो उठतीं जब नयन मुंदे मात्र भ्रमण करना ही अपना जीवन बना लेतीं...कैसे नयन...बुद्धि के नयन...मूँद लेती और पथप्रर्दक की उंगली थाम सद्पथ पर प्रकाश के पीछे चल देती ...अहा !! सहज शिशुत्व भरकर...जयजय !!
सखी ....उस पर पूर्व में पुष्प तो खिले हो ना परंतु उन पुष्पों के संग संग काँटे होना अनिवार्य ही है ....प्रीति वल्लरिका जब वहाँ निकुंज भवन में होती तब वो काँटे स्वतः कहीं खो जाते...अर्थात वो सखी हृदय के आडम्बर विडम्बनाएँ जो जगत में काँटे रूपी सजे थे उस डार पर ....यह पूर्व में ही इसलिए कह रही ताकि इन काँटों का असर हम सहज ही हितु मान आगे अग्रसर होते रहें ....
तो ये काँटे स्वतः कोमल होकर रुई सा काम करते ...जैसे घाव पर द्रवित मरहम...और उस पर भी कोमल कपास ...अहा ....सुखद होते ना वह एहसास सखी...बस ऐसे ही घाव भरते देर ना लगती ...गहराई को समझना इस वाचाल बुदि की ....
प्रीति वल्लरिका जो भोर से संध्या तक अर्थात मिलनसुख की वर्षा में भीगी संध्या तक मानिनी हो जाती ...फिर रसफुहार की द्रवित पुलकित भावनाओं से सींचित उसके परागकण तृषित हो उठते सुखसेज हेतु ...वही सींचना पुलक उठती ...सज जाती ...
नहीं समझी ना ...मिलनोपरान्त पुनः जो वियोग स्थिति होती ना वह मंद मंद संध्या की शीतलता का एहसास पाकर भीतर गहरा रही होती तब तप्त हृदय प्रेमाश्रुओं से स्नान कर और प्रीति वल्लरी पुनः मिलनोत्सुक होकर पुष्पों की कोमलता को सींच लेती ...आडम्बर प्रपंच विडम्बना रूपी सुलघते काँटे सुषुप्त से होकर हल्के भारमुक्त श्रमकन से ही प्रतीत होने लगते....प्रीति को बोध ही नहीं रहता इनका क्यों कि वह तो पुष्पराग को संजो रही हेतु सुखसेज सजाने हेतु ....यही नित्य प्रति केलिविलास सम्पूर्ण रात्रि सहजता से पुलक कर कोमल स्पंदनवत् प्रेम होकर माधुर्य सौंदर्य को भर लेता भीतर ...अहा !!!!
मिलन रात्रि में अति प्रिय व शीतल एहसास भीतर संजोए ये श्रम जल कन शीतलता का अनुभव देते ना सखी जू ... ... ...आह !!!
तो वो प्रीति वल्लरिका ....उसे डार पर पुष्पों की सींचना का ही भाव जीवित रहता....पुष्प अर्थात जागतिक कहूँ तो जैसे माई को फिक्र अपने शिशु रूपी पुष्प को हृष्ट पुष्ट भावित निरखने की ....वही सुख सखी को हियवासित युगल सुखसिज्या हेतु पुष्प सिंगार की...और वही शीतलता का एहसास ये श्रम जल कन ...अब तो समझी होगी ना ...
प्रीति वल्लरिका से खो जाते विषय आडम्बर और वह नवकलियों की सींचना कर रही अपने ही प्रेमाश्रुओं से...श्रमित होती श्रम जल कन से सींचती नवीन भावसुमनों को ....माँ को कितना श्रम होता ना शिशु रूपी पुष्प के चिंतन रससींचन में ...बस वैसे ही....कह तो सब दिया ...अनंत विडम्बनाओं को परंतु कौन किस भाव से ले यह उनकी बुद्धि मन का विषय ...
सच कहूँ तो अपनी विडंबना ही कह रही यह दासी ...लता पर नन्हे पुष्पों की सींचना हेतु....संकल्प करती कि वो नन्हे पुष्प भी पराग को कोमलता समझ युगल हेतु सेखसेज ही सजावें ....क्यों कि माँ होना अर्थात गृहस्थ होना अर्थात श्रम जल कन का जीवंत गहरा एहसास जो उस लता डार को कब प्रीति वल्लरी कर देता यह वही जाने जो पुष्प को सींच रहा हो ....वह नहीं जो मात्र स्वार्थी होकर पुष्प की महक को तो भीतर भरे पर उन श्रम जल कन का आभासमात्र भी छूना ना चाहे....
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
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