*राधे दुलारी मान तजि.....*
*मधुर प्रतिकूल आनुकुल्य*
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अद्भुत वैचित्य भरा जीव के हिय में परंतु उसे ज्ञात नहीं यह वैचित्य जो नित्य रसानंद पाना चाहता है वह इधर उधर दौड़ लगाए हुए उस विचित्र आनंद को खोजते खोजते खो रहा है ....सत्य यह कि हम आनंद से नहीं अपितु प्रतिकूलताओं से भाग रहे ,,,, उनसे निजात पाना चाह रहे.... आनंद तो सदैव सहज प्राप्य ही है....हमारा अपना है....सदैव मिला हुआ हमें !! यह प्रतिकूल परिस्थिति से निजात पाना जहाँ आनुकुल्य में भरा जा सकता वहीं हमारी रसानंद की खोज को कठिन करता जा रहा ।।
पथिक को यह आभास होता कि रस की अपेक्षा जीवन में कठिनाइयाँ बढ़ रहीं तो वह रसपथ से विपरीत दौड़ लगाकर स्वयं को स्वयं ही पीछे धकेल रहा होता है । सहज बुद्धि जीव जटिल प्रश्नोत्तरी में उलझने लगता है....सत्य है कि अधिकतम जटिलताएँ जो उपज हमारे हृदय की ही होती हैं वे अक्सर हमारे व्यवहार को कटु करती ही हैं परंतु अगर इसी कटुता को रसपथ पर बाध्य ना मान अपितु सघन रस की खान समझा जाए तो विरक्ति के पथ पर हम अग्रसर हो रहे होते हैं ....परंतु यह बुद्धिजीवी की समझ से परे होता जब तक उसे सद्गुरुदेव कर पकड़ उलझनों से पार ना करवाते !!
शिशुवत जटिलताओं से निर्भय होकर पथ पर अग्रसर होना होता है मात्र जीव को ....लड़ना या जूझना नहीं होता ....विपरीत बुद्धि से उन जटिलताओं को और जटिल नहीं बनाना होता ना सखी....
बस ,,, तो इंतजार केवल रसानंद हेतु इन प्रतिकूलताओं से उभरना होता...किंचितमात्र ऊपर उठना होता जैसे समतल से ऊपर उठते ही शीतलता का अनुभव सहज होता ऐसे ही...ऐसे ही मात्र सद्गुरु कृपा को निहारना होता जिसे हम अक्सर नहीं निहार पाते जब बुद्धि से काम लेते...
अरी सखी ....जे प्रतिकूलताएँ तो ....आनंद में भर कर कहूँ तो हमारी मानिनी प्रिया जू जैसी हैं ....नित्य सघन होतीं ....नित्य गहरातीं ....नित्य नव नव रस में सज जातीं और नित्य नवीन रस में सजातीं प्राणप्रियतम के रसानंद में डूबने की व्याकुल आकुल हृदय कुंज को ....नित्य मिलित युगल इस वैचित्री की गाढ़ता से विस्मृत खेलते रहते कि यह मान मनुहार अंततः सुखद होने वाली है....सघन गहन केलि सजने हेतु !!
अहा !! जब प्रिया जू मानिनी होतीं तो क्या क्या कर प्रियतम उन्हें मनाते ना ....कैसे कैसे मनुहार करते ....प्रिया जू के प्रियतम हेतु भृकुटि विलास कटाक्षों को जीते भी रहते और उनसे भाग अन्यत्र ना जाकर शिशुवत उनके चरणों में लोट लोट कर उन्हें मनाते ....कैन्करत्व में भरे प्रियतम प्यारी जू को मनाने हेतु नव नव प्रयास करते ....प्यारी जू की नखबेसर की चटक चमक जैसे उनके मलान मुख की आभा को चौंधा देती....उनकी माधुर्य भरी श्रृंगार षोड़िशी सेवाएँ....बिंदिया , ताम्बूलरस सज्जित युगअधर , चंद्रिका , अत्यंत सुंदर सोलह श्रृंगार और सुष्ठुकान्ता की रसझरित रसकांतियाँ उन्हें नव नव प्रलोभन देतीं रहतीं ....प्यारी जू की रसध्वनि करतीं मानिनी आहें फुफकारें प्रियतम के कोमल हृदय को झकझोरती रहतीं ....
प्रियतम जितना ऊपर से प्यारी सुकुमारी मानिनी जू की मनुहार कर उनके सैन मैन से भयभीत हो रहे होते....उतना उतना भीतर सघन होता प्यारी जू का निज करूण दयानिधि स्वभाव रस पिलाने का उन्हें और और सुख पाने हेतु व्याकुलित कर रहा होता ....प्रियतम सखियों से भी अनुनय विनय करते ना अघाते कि कैसे भी कर प्यारी जू मान त्याग उन्हें अंक से लगावैं....मानगढ़ की भोरी श्रीकिशोरी जू गह्वर वन की सघन कुंजों में विहरन करतीं करतीं अंततः मोरकुटी में आकर मान त्यागने से पूर्व आग्रह विग्रह से भरीं मुस्करा ही जाती हैं .... !!
तब ....तब सखी समस्त रसानंद की फुहारें छूट पड़ती हैं कि प्रियतम को जान पड़ता है कि यह प्रतिकूल व्यवहार तो क्षणिक था करुणानिधि प्यारी जू का ....इन रसफुहारों को अति अति गहन सघन शीतलत्व को उभारने का .....अहा !!
फिर तो आगे जो प्यारे जू को अति प्रिय रसप्रसादी मिलती उसका विवेचन मैं क्या करूँ री ... ... ...नित्य नव कुंज सेज सजातीं निज सखियाँ ही बर्ण सकतीं ना ....इनकी वैचित्य रसस्थिति को...
बस इतना ही जानूं कि यही स्थिति प्रतिकूल परिस्थितियों में जीवमात्र की है जिसे रसानंद तो सहज प्राप्त ही है ,,,,, किंचित आवश्यकता है तो उनसे लड़ने जूझने की अपेक्षा उनसे खेलने की ....केलि विलास के वैचित्य को मधुत्व में डुबाने गहराने हेतु .....
जाने कब हम इन प्रतिकूल परिस्थितियों से खेल हियकुंज सजावेंगे ....जाने कब हम निरंतर होती कृपावर्षा के रसानंद को जिएँगे और भाव आनुकुल्य से सब सहज सरल कर पावेंगे ....जाने कब ???
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
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