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युगल प्रेम भाव संगिनी भाग 2

युगल प्रेम भाव-2

"तयशुदा मुलाक़ातों में वो बात नहीं बनती
क्या ख़ूब था राहों में अचानक सामने से आना तेरा"

हाँ सच ही तो
कहाँ कब तन्हा रखा तूने मुझे
मेरे एकांत में सदा संग आनंद बन
अकेलेपन में मेरे अपने मेरे संग
तुम साथ ही तो रहे हो सदा
सदा संग तभी तो संगिनी तुम्हारी
संग संग डोलूं साथ ना छोड़ूं
पल ना भूलूं जब चाहूं तब पा लूं

क्षण भर के लिए नहीं जुदा
पल भी ना सहुं विरहा
तुम आ ही जाते हो
पा जाती हूँ तुम्हें
खोई खोई सी समा जाती हूँ तुम में
एहसास के आलिंगन में
जैसे खड़े हो तुम समक्ष मुझमें
चलते चलते आ जाती आगोश में
तुम महक में धरा अंबर प्रकृति में
आँख मूंदे सिमट कर सो जाती हूँ तुम में
हाँ सच ही तो

            आज निकुंज में एक पगली श्याम दीवानी सखी राधे जु के अंग का वस्त्र लिए कुछ मोर पंख और पुष्प एकत्रित कर रही है।नीले आसमान सी चुनरी पर रंग बिरंगे चमकीले मोरपंख सजाती व सुंदर सुगंधित पुष्पों से ज्यों सितारे से लगा रही हो।अधरों पर मंद मंद मोहन मुस्कान व बड़ी बड़ी कजरारी श्यामल आँखों में श्यामसुंदर व श्यामा जु की मुर्त लिए वो चलती जा रही है कि अचानक अपने भावों में खोई खुद को श्याम जु संग पाती है।

आह।।अरे श्यामसुंदर जु आप
आज कैसे यहाँ
राह भूल गए हो ना
भूल से ही आए बाहों में भर लिए हो आज
है ना।।श्यामा जु तो वहाँ निकुंज में आपका

चुप कर
चुप पगली
सहसा ही नहीं
तूने याद किया तभी आया हूँ
तुझे आलिंगन देने
तेरे प्रेम से बंधा चला आया हूँ।।

अच्छा जी।।
मान भी लूं कि मेरे पुकारने से आए हो
पर आपकी चाटूकारिता का जवाब नहीं
ज़रूर कुछ तो सूझ होगी ही आपकी
जो यूँ आए के थामे हो।।
कहो।।क्या चाहते हो

ओह।।तो तुझे यकीं नहीं ना अपने प्रेम पर
तुम पुकारती हो तो सुद्धि से नहीं
तुम्हारे नेह से बंधा चला आता हूँ
तू कहे तो चला जाता हूँ।

ना।।नहीं नहीं।।

आँखों से अश्रु ढरकाती सी रोक लेती है अपने प्रियतम को

ना मत जाओ।मैं रो पड़ुंगी।

हाथ पकड़ बैठा लेती है सामने अपने पलकें झुकाकर संग ही रहने के जन्मों के वादे करती रोती नेह भरी आँखों से कभी शर्माई सी देखती है प्रियवर के नयनों में और कभी खुद अपने नयन चुराती।प्रेम भी करती है और दूर रह भी नहीं पाती।पास बैठे नटखट तो कभी चंचल श्यामसुंदर से कई अनकही अपनी चुप्पी से ही कह जाती है।

श्यामसुंदर भी उसे चुपचाप बैठे निहार ही पाते हैं।खुद प्रेम पिपासु उसे निगाहों से पिलाते उसकी निगाहों से ही रस पीते हैं।वो मोहन में युगल छवि पा जाती और मोहन उसमें मृगनयनी श्यामा जु को पा जाते हैं।
बस इतना ही पूछ पाते हैं

क्या कर रही हो ये
ज़रूर अपनी स्वामिनी जु के लिए ही सजा रही होगी ये चुनरी और वो मस्तानी हाँ में सिर हिलाती खुद ही कह देती है

आओ तुम भी सजाओ इसे
तुम्हारी छुअन से जो महक आएगी इसमें
सच श्यामा जु भावविभोर हो उठेंगी इस चूनर को ओढ़कर।नाच उठेंगी उन्मादिनी राधे जु।
कहते कहते पुष्प और मोरपंख थमा देती है श्यामसुंदर जु को और खुद भी सजाने लगती है।

श्यामसुंदर जु आपके बिना तो हर श्रृंगार अधूरा ही लगता है श्यामा जु का।सच आप संग में उनको सजता देख जन्म जन्मातरों की प्यास मिट तो जाती ही है पर सदा वही मंज़र देखने की आस आँखों में इंतजार के आंसु भी ले आती है।

फिर एक सन्नाटा सा छा जाता है।दोनों शांत हैं लेकिन भीतर एक आग सी है जो जला भी नहीं रही पर शीतलता का एहसास भी नहीं होने दे रही।बेचैनी सी जैसी प्रेमियों में दूरी से उफनती है और पास होने से भी धधकती ही है।संयोग से अधिक वियोग का एक एहसास जिसमें नज़दीकी भी मचली सी है।

यकायक बोल पड़ती है

चलो श्यामसुंदर जु चलें श्यामा जु पास
आप उन्हें ये ओढ़नी अपने हाथों से ही औढ़ाना।
झट से उठ कर ओढ़नी को समेटती हुई हाथ थाम मनमोहन मनमीत से संग चलने को कह देती है।
श्यामसुंदर भी चल ही देते हैं चित्रलिखे से
कोई आनाकानी नहीं कोई कुछ नहीं कहता।
बस चल रहे हैं संग संग सदा के जैसे।

चलते चलते श्यामसुंदर जु की लीला के रंग
पगली सखी के संग
क्या देख रही है
समक्ष अपने
श्यामसुंदर जु राधे जु संग निकुंज में विराजे हैं।
उनकी वेणी को मोतियों से सजा रहे हैं।बस वेणी श्रृंगार पुर्ण हो ही गया है।अद्भुत सुंदर श्रृंगार है।केश तो नज़र ही नहीं आ रहे।ऊपर से नीचे तक मनमोहक मोतियों से पूरी ढक ही दी है प्रिय श्यामसुंदर जु ने और अब उनके हाथ में वही चुनरी है श्यामा जु की।श्यामा जु सीधे होकर मुस्करातीं हैं और श्यामसुंदर जु देखते ही देखते वही चुनरी उनको औढ़ा देते हैं।दोनों प्रिया प्रियतम और सेवा में खड़ी सखियां हंस देती हैं।

और यहाँ ये सखी अपने संग खड़े मुस्कराते श्यामसुंदर जु को देख दंग ही रह जाती है।कभी युगल को अपनी निगाहों में बसाती तो कभी श्याम जु में ही श्यामा जु को पा जाती है।

वहाँ से दौड़ कर जाती है और निर्भृत निकुंज के द्वार पर पुष्प बिछाने लगती है और यहाँ भी उसके भावस्वरूप मदनमोहन संग ही हैं।सामने बैठे पुष्प बिछा रहे हैं।पर अब मौन है।कुछ कह ही नहीं पाती।

पुष्प बिछाते हुए श्यामाश्याम जु को वहाँ आते देखती है और जहाँ उनकी शयन शैय्या पर मञ्जरी सखियां सजावट कर रही हैं वहाँ भी प्रियाप्रियतम जु को विराजमान पाती है।हर कहीं हर किसी में उसे उनका प्रेम ही भरा नज़र आ रहा है और खुद में भी वो उनको ही महसूस कर रही है।उसकी देह का सपन्दन और गहराता है तो वह श्यामा जु और मदनमोहन लाल जु को एकस्वरूप देख अपनी आँखें मूंद उसी भावदशा में वहीं मंत्रमुग्ध चित्रलिखित सी बैठी उनकी रूपमाधुरी को नयनों में भर समाधिस्त हो जाती है।

हाँ सच ही तो
प्रेम है तुमसे
तुम बेइंतहा प्रेम करते हो मुझसे
इस एहसास भर से
अश्रुपूरित नयनों में
भर जाते हो तुम
उतर कर हृदय में
रोम रोम में सिहरन जगाते हो
अंग अंग कर अर्पण तुम्हें
खो कर खुद को मैं
पा जाती हूँ तुम्हें
भूल कर अपने को
तुम सी मोहन हो कर
कभी राधे को तो
कभी संगिनी को चाहती हूँ मैं
होती हूँ अकेली
तो अपने अकेलेपन में
पाती हूँ तुमको संग अपने

"तेरे साथ के आगे जन्नत कुछ भी नहीं
और तेरे साथ के सिवा मेरी कोई मन्नत भी नहीं"

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