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भावना भक्ति से निषेध अनुसरण तक - तृषित

जयजय ।
भावना की ही वन्दना भक्ति है । भावुक ही रसिक भावना की वन्दना कर सकता है ।
अगर स्वामी जू की छबि निषेध है तब केवल हे नाथ मैं तुझे ना भूलूँ उसे उनके नाम सहित लगाकर भी उन्हें नमस्कार किया जा सकता है । स्वामी जू जानते है कि जीव का सत्य-विस्मरण एक जीवन ही हो गया है । श्रीहरि के प्रति प्रीति हो इसलिये ही श्रीहरि गुण-गान के लिये कोई भावुक करुणावश तैयार होते है सो वह पृथक् अस्तित्व की माँग ना स्वयं में चाहते है ना अपेक्षा करते है कि पृथकता को माना जावें ।

परन्तु जीव बाह्य इंद्रियों के सँग को छोड नही पाता और इनसे ही रस लेता है जबकि देह तो दाह तक सँग है अगर देह की प्रीति को चिन्तन से दाह कर लिया जावें तब इंद्रिय दिव्य होकर रस ले और दे रही होगी ।
जीव का तर्क है कि हमने भगवान को नही देखा सो गुणगान करते सन्त को ही वंदन करें जबकि यह इच्छा बाह्य नेत्र को सत्य मानने पर होगी ।
भगवदीय शक्ति से सिद्ध स्थिति को अभिन्न मानने पर भी जीव कहता है कि  इनमें ही हरि है । यह आचार्य भक्ति (गुरुभक्ति) हुई परन्तु आचार्य की अपनी निष्ठा और भावना का आदर कर उनके सिद्धांत और प्रेम का आदर होने पर उनके द्वारा प्रकट श्रीहरि स्वरूप में सभी को नमन सम्भव है ।
श्रीआचार्य इच्छा से उनकी अर्चना में प्रीति होते हुये भी जो उनके आश्रय-विषय स्वरूप में ही प्रीति करें वह आचार्य अनुगत है । पृथक् चाहकर प्रीति हुई है तब भी अनर्थ कुछ नही हुआ बस आचार्य की अपनी इष्ट की कीर्ति महिमा को समझा ना गया । परन्तु यहाँ आचार्य की इष्ट शक्ति ही भावुक की आवरणित स्थिति से अपने प्रेमास्पद (आचार्य) का यजन-वंदन चाहती है ।
श्रीहरि प्रेमी श्रीहरि का यश और श्रीहरि निज प्रेमी का यश चाहते है परन्तु सतर्क स्थिति ही यह अनुभव कर पाती है कि श्रीहरियश सेवा हुई या उनका यश गान चाहते हुये भी श्रीहरि ने अपने प्रेमास्पद को पूजित करवाया । जैसा श्रीराम चाहते भरतजी अयोध्या सम्भाले परंतु भरतजू प्रेमपथ पर सम्भल कर चलें  उनकी ही अवध मान पायें और श्रीसरकार की चरणपादुका के सेवक रहें । सहज सेवक सेवकाई छोड नही सकता और सेवक होना एक अति विकट स्थिति रहती सहज प्रेमी के लिये ।  सो जो भावुक आचार्य की वाणी या उनके हृदय अनुराग को धारण करते है वह आचार्य अनुगत है और कोई भी सहज रसिक यह नही कहते कि मुझे नमन करें पर श्रीहरि भावुक की इस दुविधा का लाभ लेकर अपने प्रेमास्पद को भजते और पूजते है सो आचार्य हरि द्वारा अपनी महिमा का खेल स्पष्ट देखते हुये अपनी बाजी से ही सबको खेल खेलने को कहते है कि श्रीहरि भजो ।
रसिक आचार्य स्वरूप में इष्ट का सम्पुर्ण अनुभव होने पर भी उनके सँग उनके सुख की लीला में होने पर वह सहज श्रीहरि के नित्य रस सेवा में सँग लिये चलते है । और इहलोक जो प्राकृत को ही यथार्थ भजते हो (शरीर और जगत को ही सत्य पाकर) तब श्रीआचार्य की वह देह ही श्रीहरि है ही । जबकि श्रीआचार्य का अपना कोई तादात्म्य देह में होता नही है उन्हें शरीर सेवा से नही उनके हृदय की सेवा से ही सुख होगा । उनके शरीर की सेवा श्रीहरि को सुख हो रहा होता है परन्तु ऐसी सेवक स्थिति श्रीहरि की इस सेवा रीति से अपरिचित रहने से वास्तविक खेल में पात्र होने का रस ना लेकर पृथक् अहंकार को मानते हुये अपनी ही सेवा मानते है । श्रीआचार्य जीव नही ... शिव स्थिति है और शिवालयों में मेरी सेवा हेतु पूर्व सेवा श्रृंगार को उतार कर सेवा करते हुये जीव शिव को जीव दृश्य नही है वह उनके लिये श्रीराम (श्रीहरि) है । सेवातुर राम । अपने राम को सेवक पाकर सिद्ध रसिक स्थिति को पीडा होती है वह सेवक ही रहना चाहते है जबकि उनकी सिद्धता की महक से उभय हुई सेवा रूपी रस से सुर-असुर भी लाभ लेना चाहते है । परन्तु प्रीति लाभ-हानि कतई नही है वह तो हृदय से हृदय का खेल भर है ।
केवल सहज रसिक (वास्तविक सिद्ध)(नित्यदास) ही अपनी पृथक् पूजन निषेध कर सकते है अथवा निज देहिक यजन-सेवन भी श्रीप्राण  सरकार को अर्पित करते हुये सेवाकाल में भी सेवक रहते है । और पृथकता से तनिक भी रस चाहने वाली स्थिति जो कि प्रेमी है नही पर अभिनय पूरा यथाप्रेमी होता है उन्हें ही अपनी पृथक् सेवा से भीतर या बाह्य पीडा नही होती वरण सेवक स्वामी के सुख से सुखी है । श्रीहनुमान जी को श्रीराम नाम सँग चोला चढाने से उनके हृदय की सेवा हो रही होती है । ऐसे ही रसिक हिय की सेवा रहे प्रयास होना चाहिये । क्योंकि कालान्तर में प्राकृत भक्ति ही होनी है जिससे  बहु नव ईश्वर और उनकी सेवा होने पर श्रीहरि की विस्मृति हो सकती है जो कि रसिक हिय से उछली करुणा है कि ...हे नाथ मैं तम्हें ना भूलूँ ! रसिक स्थिति का यहां अपने प्राण से यह तर्क होता है कि प्रेमी का पूजन ही आपका सुख है तब सर्व में क्यों नही स्वयं का अनुभव सर्व के लिये प्रकट कर सर्व को नित्य आह्लादित करते हो (ऐसी लालसा ही कलियुग को सतयुग में ले जाती है) सतयुग में सभी परस्पर भगवदीय बोध से ही सँग रखते है अर्थात् सत्य ही प्रकट खेल रहा होता है असत की सत्ता का अभाव रहता है । तृषित । इस कलियुग में सत्य कही प्रकट होने पर उनके हिय की वाँछा को भुल उन्हें पृथक् ईश्वर मानने से बहुईश्वरवाद फैलने से साम्प्रदायिक घर्षण स्थिति प्रकट होती है जिसमें सभी पक्ष स्वयं को धर्मयोद्धा (जिहाद-कट्टरवादी) पाकर खडे होते है । जबकि वह स्वयं ही निज आधार के हिय में स्फुरित प्राणरस की सेवा से छुटे हुये होते है ।
सिद्ध अवतरण कतई पृथकता से सन्तोष नही करते (परन्तु अनुयायी में वह विशेष पृथकत्व पीढी दर पीढी छुटकर विकृत होता है) स्मृत करिये कर्मकांड के बहिष्कार से जितने मत बने आज उनका अपना कर्मकाण्ड पेचिदा है (बुद्धतंत्र आदि) कैसे बुद्ध की सहिष्णुता मार्शल-आर्ट जूडो-कराटे हुई जबकि शारीरिक  सिद्धि उनका पथ नही था ।
सिद्ध अनुगत केवल सिद्ध हृदय का अनुगत(सिद्धान्त) जब तक है तब तक ही प्रकट रहता है ...आगे कालान्तर में उनके नाम के रहने पर भी सिद्धांत अपभृंश होते रहने पर वर्तमान सम धर्मयुद्घ खडे होते है । जिसे भी आप अधर्म कहेंगें उसके पीछे कोई संयमित सिद्ध अवतरण शक्ति रही थी । (आचार्यसिद्धान्त-आनुगत्य छुटना ही आगे अधर्म द्योतक है ) तृषित ।

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