Skip to main content

अति प्रचार और अमृत वितरण - तृषित

किसी भी पथ का जब अति प्रचार हो तब ही विकार होता है क्योंकि सभी अनुयायी सम स्थिति पर नही होते । और अनुसरण भंग होकर अपनी अपनी छद्मता उसमें झोंक दी जाती है ।

मदिरा भी औषधिवत्  ग्राह्य है जब तक औषधी में वह है ।
औषधी से पृथक् वह विकृति ही प्रकट करती है (औषधी - सिद्धान्त)

अमृत भी सभी के लिये नही है । कोई कहे भक्ति पथ भी क्या कालान्तर में अधर्म हो सकते है (पूर्णिमा जैसे गृहण हो जाती वैसे हो सकते है) यहाँ मोहिनी अवतरण देखना चाहिये ।  सुर और असुर स्थिति में सुर स्थिति में ही अमृतपान हो यह  चाह कर मोहिनी अवतरण लेने पर अमृत वितरण स्वयं मोहिनी अवतरण सँग श्रीहरि करें तब भी राहु-केतु अमृतपान करते है जिससे अमृत का असुरत्व में प्रवेश होने से अपभृंश प्रकट होते है । कितनी ही सतर्कता हो राहु केतु अमृतपान करेंगें यह पुरातन तथ्य है तदपि अपनी ओर असुरत्व में अमृत-वितरण नही किया जाता (श्रीहरि-आश्रय से पृथकताओं की माँग ही असुरता है)

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ ...

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हर...

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ ...