किसी भी पथ का जब अति प्रचार हो तब ही विकार होता है क्योंकि सभी अनुयायी सम स्थिति पर नही होते । और अनुसरण भंग होकर अपनी अपनी छद्मता उसमें झोंक दी जाती है ।
मदिरा भी औषधिवत् ग्राह्य है जब तक औषधी में वह है ।
औषधी से पृथक् वह विकृति ही प्रकट करती है (औषधी - सिद्धान्त)
अमृत भी सभी के लिये नही है । कोई कहे भक्ति पथ भी क्या कालान्तर में अधर्म हो सकते है (पूर्णिमा जैसे गृहण हो जाती वैसे हो सकते है) यहाँ मोहिनी अवतरण देखना चाहिये । सुर और असुर स्थिति में सुर स्थिति में ही अमृतपान हो यह चाह कर मोहिनी अवतरण लेने पर अमृत वितरण स्वयं मोहिनी अवतरण सँग श्रीहरि करें तब भी राहु-केतु अमृतपान करते है जिससे अमृत का असुरत्व में प्रवेश होने से अपभृंश प्रकट होते है । कितनी ही सतर्कता हो राहु केतु अमृतपान करेंगें यह पुरातन तथ्य है तदपि अपनी ओर असुरत्व में अमृत-वितरण नही किया जाता (श्रीहरि-आश्रय से पृथकताओं की माँग ही असुरता है)
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