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भावना  (हित रस रीति)

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‘भावना’ से तात्पर्य उस सेवा से है जो किसी बाह्य उपादान के बिना केवल मन के भावों के द्वारा निष्पन्न होती है। इस सेवा में सेव्य, सेवा की सामग्री एवं सेवक भाव के द्वारा उपस्थापित होते हैं। इस सेवा का समावेश ‘ध्यान’ के अन्तर्गत होता है। इस सेवा में भी सर्वप्रथम सखी भाव को अपने मन में स्थिर करना होता है। भावना के अभ्यासी को यह तीव्र आकांक्षा अपने मन में जगानी होती है कि ‘मुझको जिस भाव का आश्रय है, वही जिनका भाव है, भगवान के उन नित्य संगीजनों जैसा प्रेम मुझ में भी हो।’

निजोपजीव भावानां भगवन्नित्य संगिनाम्।
जनानां यादृशो रागस्ताट्टगस्तु सदा मयि।।

‘अभ्यासी को सखीजनों के भाव की भावना में स्थिर रहना चाहिये क्योंकि उस भाव को लक्ष्य करके अपने अन्दर बढ़ी हुई भावना-वल्ली कभी फलहीन नहीं होती।'

इत्थं भावनयास्थेयं स्वस्मिस्न्तस्मभिलक्षिता।
समृद्धा भावना वल्ली न वंध्या भवति ध्रवम्।।

इस सम्प्रदाय के भाव के अनुकूल भावना के अभ्यास का क्रम इस प्रकार बतलाया गया है। ब्रह्म मुहूर्त में उठकर एवं मन को एकाग्र करके पहिले मंत्रोपदेष्टा गुरु के सखीरूप को और फिर सम्प्रदाय- प्रवर्तक गुरु के सखीरूप को श्रद्धापूर्वक नमस्कार करना चाहिये। तदनन्तर श्रीमद् वृन्दावन का ध्यान करना चाहिये ‘जिसमें लताओं के ही नाना प्रकार के भवन बने हुए हैं और जिसकी दिशायें विचित्र पक्षियों के समूह के नाद से मुखरित हैं। उपासक, इस वृन्दावन में प्रियतम से संयुक्त प्रिया का और प्रिया से संयुक्त प्रियतम का एवं इन दोनों का मिलन ही जिसके जीवन का एकमात्र आधार है उस सखी- समुदाय का, भली प्रकार से स्मरण करे। जो युगल परस्पर दर्शन, स्पर्शन, गंधग्रहण, और श्रवण में ही तत्पर रहते हैं एवं इन बातों को छोड़कर जिनमें परस्पर कोई अन्य व्यवहार है ही नहीं, उनकी शैय्या पर विराजमान होने से पूर्व की एवं शैय्या से उठने के पश्चात की मधुर रस भरी नित्य-लीला का मन के द्वारा संस्मरण करें।'
श्रीमद् वृन्दावनं ध्यायेन्नानाद्रुम लतालयम्।
विचित्र पत्रिनिवह मुखरीकृत दिड्मुखम्।।
प्रियां दयित संयुक्तां दयितं च प्रिया युतम्।
तत्संगमैक जीवातु मालिव्यू हं च संस्मरेत्।।
यौ दर्शस्पर्शनाघ्राणा श्रवणेषु च तत्परौ।
परस्परं तदितर व्यवहार वियोगिनौ।।
नित्यां स्वारसिकीं लीलां मनसा संस्मरेत्प्रभो:।
शैया रोहणत: पूर्वां परां शम्यावरोहणत्।।

प्रकट सेवा जिस प्रकार मंगला आरती से शयन आरती पर्यन्त होती है, उसी प्रकार भावना का भी क्रम है। दोनों सेवाओं में भेद यह है कि प्रकट सेवा स्थूल देश काल से आवद्ध है और भावना में इस प्रकार का कोई बंधन नहीं है। भावना में ऐसी लीलाओं का भी समावेश हो जाता है जिनका दर्शन प्रकट सेवा में संभव नहीं है। उदाहरण के लिये सायंकालीन सेवा में उत्थापन केे बाद बन- विहरण, जल-केलि, कंदुक-क्रीड़ा, दानलीला आदि लीलाओं का चिंतन करने की व्यवस्था भावना-पद्धति में दी हुई है। इसी प्रकार संध्या आरती के पश्चात रास लीला का चिंतन होता है।

प्रकट सेवा से भावना मे सेवा का अवकाश अधिक रहता है, इसीलिये इस सेवा का महत्त्व अधिक है। दूसरी बात यह है कि प्रकट सेवा में मन का पूरा योग न होने पर भी सेवा का कार्य चलता रहता है किन्तु भावना में मन के इधर-उधर होते ही सेवा रुक जाती है और सेवाको पूर्ण करने के लिये मन को स्थिर होना ही पड़ता है। मन को वश में करने के लिये यह अभ्यास श्रेष्ठ है। मन स्थिर होकर जिस विषय का चिन्तन करता है उसी के प्रति उसमें राग उत्पन्न हो जाता है और अनुकूल पदार्थ में राग का नाम ही ‘प्रेम’ है। भावना के द्वारा, इसीलिये, अधिक प्रेमोत्पत्ति मानी गई है।

इस सम्प्रदाय के साहित्य में ‘अष्टयामों’ का एक स्वतन्त्र एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस अष्टयामों में रस-सिद्ध संतों की भावना का वांगमय स्वरूप प्रकट हुआ है। प्रायः सभी पहुँचे हुए रसिकों ने अष्टयामों की रचना की है जिनमें से अनेक उपलब्ध हैं। अकेले श्रीवृन्दावन दास चाचाजी के चौदह अष्टयाम प्राप्त हैं। इन रसिकों के अधिकांश सुन्दर पद अष्टयामों में ही ग्रथित हैं। अष्टयामों में युगल की अष्ट कालिक लीला का चमत्कार पूर्ण गान एवं सखीजनों की रसमयी सेवा का विशद वर्णन रहता है। भावना का अभ्यास करने वाले को यह अष्टयाम अत्यन्त सहायक होते हैं। प्रेमपूर्ण मनोयोग के साथ किसी अष्टयाम का गान कर लेने से भावना का कार्य सरस रीति से निष्पन्न हो जाता है।

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