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राधा चरण प्राधान्य , हित रस

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*राधा-चरण-प्राधान्‍य*

राधा-सुधा-निधि के एक श्‍लोक में श्रीराधा को ‘शक्ति: स्‍वतन्‍त्रा परा’ कहा गया है; और इस के आधार पर कुछ लोग हि‍तप्रभु को शक्ति-रूपा सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। किन्‍तु उक्त श्‍लोक को ध्‍यान पूर्वक देखने से मालूम होता है कि इस में हितप्रभु ने श्रीराधा संबंधी सब प्रचलित मान्‍यताओं को एक स्‍थान में एकत्रित कर दिया है और साथ में अपना दृष्टिकोण भी दे दिया है। वह श्‍लोक इस प्रकार है।

प्रेम्‍ण: सन्‍मधुरीज्‍ज्‍वलस्‍य हृदयं, श्रृंगार लीला कला-
वैचित्री परमावधि, भंगवत: पूज्‍यैव कापीशता।
ईशानी च शची, महा सुख तनु:, शक्ति: स्‍वतन्‍त्रा परा,
श्री वृन्‍दावननाथ पट्ट महिषी राधैव सेव्‍या मम।।

इस श्‍लोक में, हितप्रभु ने, ‘मधुरोज्जवल प्रेम की हृदय रूपा, श्रृंगाल-लीला-कला-वैचित्री की परमावधि, श्रीकृष्‍ण की कोई अनिर्वचनीय आज्ञाकर्त्री, ईशानी, शची, महा सुख रूप शरीर वाली, स्‍वतन्‍त्रा परा शक्ति और वृन्‍दावन नाथ की पट्ट महिषी श्रीराधा’ को ही अपनी सेव्‍या बतलाया है। हितप्रभु के सिद्धान्‍त से परिचित कोई भी व्‍यक्ति यह नहीं कह सकता कि वे श्रीराधा की उपसाना उनके ईशानी, शची या शक्ति के रूपों में करते हैं किन्‍तु इन सब रूपों वाली श्रीराधा ही उनकी इष्ट हैं, इसमें संदेह नहीं है।

हित प्रभु श्‍यामाश्‍याम के बीच में स्‍थूल विरह नहीं मानते किन्‍तु राधा सुधा निधि में एक श्‍लोक ऐसा भी मिलता है जिसमें उन्‍होंने स्‍थूल वियोगवती श्री राधा की वंदना की है।

इस श्‍लोक को देखकर भी लोगों को भ्रम होता है और कुछ लोग तो इस प्रकार के श्‍लोकों के आधार पर राधा-सुधा-निधि को ही श्रीहित हरिवंश की रचना स्‍वीकार नहीं करते। किन्‍तु हितप्रभु के तीस-चालीस वर्ष बाद ही होने वाले श्रीध्रुवदास ने इस प्रकार की उक्तियों के संबंध में अपने ‘सिद्धान्‍त-विचार’ में कहा है, ‘जो कोऊ कहै कि मान-विरह महा पुरुषन गायो है, सो सदाचार के लिये। औरनि कौं समुझाइवे कौं कहयौ है। पहिले स्‍थूल-प्रेम समुझै तब आगे चलै। जैसे, श्रीभागवत की बानी। पहिले नवधा भक्ति करै तब प्रेम लच्‍छना आवै। अरु महा पुरुषनि अनेक भाँति के रस कहे हैं, एपै इतनौ समुझनौ कै उनको हियौ कहाँ ठहरायौ है, सोई गहनौ'।

ध्रुवदास जी के कहने का तात्‍पर्य यह है कि महापुरुषों की रचनाओं में उनकी मूल भावना को समझने की चेष्टा करनी चाहिये और उस भावना के विरुद्ध जो उक्तियाँ दिखलाई दें, उनको महत्‍व नहीं देना चाहिये। चाचा हित वृन्‍दावनदास ने चार महानुभावों को नित्‍य विहार का आदि प्रचारक बतलाया है; सब के मुकट-मणि व्‍यासनंद सुमोखन शुक्ल के कुल-चन्‍द्र, आनंद-मूर्ति वामी हरिदास जी और भक्ति-स्‍तम्‍भ श्रीप्रबोधानंद जी।

सबकेजु मुकट मणि ब्‍यासनंद, पुनि सुकुल सुमोखन कुल सुचंद।
सुत आसधीर मूरति आनंद, धनि भक्ति –थंभ परबोधानंद।।
इन मिलि जु भक्ति कीनी प्रचार, व्रज-व्रन्‍दावन नित प्राति विहार।
जन किये सनाथ मथि श्रुति जु सार, मंगल हू कौ मंगल विचार।।

इनमें से श्रीप्रबोधानंद सरस्‍वती की संपूर्ण रचना संस्‍कृत में मिलती हे। इन चारों के दो-चार या अनेक ऐसे पद या श्‍लोक मिलते हैं जो वृन्दावन-रस की मूल दृष्टि से मेल नहीं खाते। ‘हित चतुरासी’ और स्‍वामी हरिदासजी कृत ‘केलि-माल’ की टीकाओं में ऐसे पदों का अर्थ बदल कर उनको मूल भावना के अनुकूल बनाने की चेष्टा की गई है किन्‍तु ऐसे पदों के संबंध में ध्रुवदास जी का दृष्टिकोण वैज्ञानिक और युक्ति युक्त प्रतीत होता है।

श्रीहित हरिवंश सच्‍चे युगल उपासक हैं और युगल में समान रस की स्थिति मानते हैं। उनकी दृष्टि में श्रीराधा की प्रधानता का अर्थ श्रीकृष्‍ण की गौणता नहीं है। राधा-सुधा-निधि स्‍तोत्र में श्रीकृष्‍ण से वे उनकी प्रियतमा के चरणों में स्थिति माँगते हैं और श्रीराधा से उनके प्राणनाथ में रति की याचना करते हैं।

युगल के लिये बिना, अकेले श्रीकृष्‍ण अथवा श्रीराधा से, रस की निष्‍पति संभव नहीं है। श्रीराधा के प्रति पूर्ण पक्षपात रखते हुए भी हित प्रभु अपनी मानवती स्‍वामिनी से कहते हैं, ‘हे राधिका प्‍यारी, गावर्धनधर लाल को सदैव एक मात्र तुम्‍हारा ध्‍यान रहता है। तुम श्‍यामतमाल से कनक लता से समान उलझ कर क्‍यों नहीं स्थित होतीं, और रसिक गोपाल को गौरी राग के गान द्वारा क्‍यों नहीं रिझातीं ? हे ग्‍वालिनि, तुम्‍हारा यह कंचन-सा तन और यह यौवन इसी काल में सफल होने का है। हे सखि, तुम महा भाग्‍यवती हो, अत: मेरे कहने से अब विलम्ब मत करो। तुम को श्‍यामसुन्‍दर के कंठ की माला के रूप में देखने की मेरी अभिलाषा उचित है।
तैरौई ध्‍यान राधिका प्‍यारी गोवर्धनधर लालहि।
कनक लता सी क्‍यों न विराजत अरुझी श्‍याम तमालहि।।
गौरी गान सुतान ताल गहि रिझवत क्‍यों न गुपालहि।
यह जोबन कंचन तन ग्‍वालिनि सफल होत इहि कालहि।।
मेरे कहे बिलम्‍ब न करि सखि, भूरि भाग अति भालहिं।
(जय श्री) हित हरिवंश उचित हौं चाहत श्‍याम कंठ की मालहिं।।[1]

सेवकजी ने इसीलिये, हितप्रभु की उपासना की रीति का निर्धारण करते हुए कहा है ‘मैं श्री हरिवंश की रीति का अनुसरण करके श्‍यामाश्‍याम का एक साथ गान करता हूँ। इन दोनों में एक क्षण को भी अंतर नहीं होता, इनके प्राण एक हैं और देह दो। राधा के संग के विना श्‍याम कभी नहीं रहते और श्‍याम के विना राधा नाम नहीं लिया जाता। प्रतिक्षण आराधन करने के कारण ही श्‍यामसुन्‍दर राधा नाम का उच्‍चारण करते हैं। श्‍यामश्‍यामा ललितादिक सखियों के संग सुख पाते हैं और श्री हरिवंश उनकी श्रृंगार-रति का गान करते हैं।'

श्रीहरिवंश सुरीति सुनाऊँ, श्‍यामाश्‍याम एक संग गाऊँ।
छिन एक कबहुँ न अंतर होई, प्रान सु एक देह हैं दोई।।
राध संग विना नहीं श्‍याम, श्‍याम विना नहीं राधानाम।
छिन-छिन प्रति आराधत रहई, राधानाम श्‍याम तक कहहीं।।
ललितादिकन संग सचु पावैं, श्रीहरिवंश सुरत-रति गावै।[2]

श्रीराधा को प्रधानता मानने वाले एक रसिक महानुभाव उन्नीसवीं शती के आरंभ में हुए हैं। इनका नाम श्रीवंशीअलि था। ये उच्चकोटि के भक्त होने के साथ व्रजभाषा के सुकवि और संस्‍कृत के अच्‍छे विद्वान थे। राधावल्‍लभीय संप्रदाय के गोस्‍वामी चन्‍द्रलालजी की ‘वृन्‍दावन-प्रकाशमाला’ में इनका थोड़ा-सा परिचय मिलता है। वंशी अलिजी राधा वल्‍लभीय संप्रदाय के अनुयायी नहीं थे और उनकी स्‍वतन्‍त्र शिष्‍य-परंपरा अद्यावधि विद्यमान है। हित प्रभु पर इनकी प्रगाढ़ श्रद्धा थी और उनकी प्रशंसा में कहे गये इनके कई सुन्‍दर पद प्राप्त हैं। हैं। हितप्रभु के राधा सुधा निधि स्‍तोत्र के ये, अपने समय के, सबसे बड़े वक्ता माने जाते थे। कहा जाता है कि बरसाने में इनको श्री राधा के प्रत्‍यक्ष दर्शन हुए थे।

वंशी अलिजी रचित ‘श्री राधिका महारास’ प्रकाशित हो चुका है। इसके अध्‍ययन के द्वारा हम यह दिखलाने की चेष्टा करेंगे कि हितप्रभु की उपासना की रीति को छोड़ने से श्रीराधा-प्राधान्‍य का क्‍या रूप बन जाता है।

‘राधिका-महारास’ में श्री भागवत वर्णित रासलीला का संपूर्ण अनुकरण है, केवल श्रीकृष्‍ण के स्‍थान में श्रीराधा को प्रतिष्ठित कर दिया गया है। श्रीमद्भागवत की रासलीला में श्रीराधा का नामोलेख नहीं है, इसमें श्रीकृष्‍ण अनुपस्थित हैं। इसमें श्रीराधा ही वेणु-वादन करती हैं और जब सखी-गण ‘गृह-तन-बन्‍धु बिसारि’ कर उनके निकट पहुँचती है तो श्रीराधा कहती हैं,

सहचरिधर्म नाहिं यह होई, सहचरि-धर्म सख्‍य रस जोई।
हँसि हैं ओर सखी जेती मो, कौन देश तै आई ये को?

इसके उत्तर में सखीगण कहती हैं,

अहो कुँवरि तुव रुप यह नाहिंन राखत धर्म।
तेरी सुधि विसरावई हमरे छेदत मर्म।।

इसके बाद रास का आरंभ होता है और श्रीकृष्‍ण की भाँति श्रीराधा एक सखी को लेकर रास के मध्‍य के अंतर्धान हो जाती हैं। सखीगण परम दुखित होकर विलाप करने लगती हैं और श्रीराधा की लीला का अनुकरण करती है। श्रीराधा प्रगट होकर उनके साथ रास क्रीडा का आरंभ करती हैं, रास में सब श्रमित हो जाती हैं और-

श्रम निर्वारन चलीं, कुंवरि‍ राधा यमुना तट।
प्रिया वृन्‍द लिये संग, माल मरगजि तैसे पट।।
वारि माँझ मिल खेलत श्री राधा सँग प्‍यारी।
छिरकत मुख छवि पैरनि हावभाव सुखकारी।।
छिरकि-छिरकि लपटात कुंवरि सौं सब व्रजनारी।
तब अकुलाइ लड़ैती तिन सौं करत हहारी।।

इस रास में श्रीकृष्‍ण के सर्वथा अभाव ने श्रृंगार रस ही नहीं बनने दिया है। हम देख चुके हैं कि भरत ने प्रमदायुक्त पुरुष को ही श्रृंगार कहा है, अत: श्रीकृष्‍ण को छोड़कर श्रीराधा की प्रधानता का, रस की दृष्टि से, कोई अर्थ नहीं रह जाता। हित प्रभु ने श्रीराधा की किसी स्‍वतन्‍त्र लीला का वर्णन तो कहीं किया ही नहीं है, उनके श्रीराधा–रुप–वर्णन के जो पद हैं, उनमें भी वे विदग्‍धता पूर्वक श्‍याम सुन्‍दर का उल्‍लेख कहीं न कहीं कर देते हैं। हितप्रभु की राधा-चरण-प्रधानता को स्‍पष्ट करते हुए नागरीदासजी कहते हैं, ‘रसिक हरिवंश का मन ही श्‍यामा श्‍याम का तन है और वे अपने अनुराग के इस ललित वपुओं को सदैव अपने हाथ में लिये रहते हैं।

अपनी वाम भुजा की ओर श्‍यामसुन्‍दर और दक्षिण भुजा की ओर श्रीराधा को लिये हुए वे मत्त गति से वृन्‍दावन में विचरण करते रहते हैं।

रसिक हरिवंश मन लाड़िली लाल तन
ललित अनुराग वपु करनि लीने।
वाम भुज लाल दक्षिण भुजा लाड़िली,
ललित गति चलत मल्‍हकत प्रवीने।।

*राधा-चरण -प्राधान्‍य*

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