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तृषा वर्धन , बांवरी जू

*तृषा वर्धन*

     चेतना सदा से तृषित है, अतृप्त है क्योंकि छूटी हुई है उस महाचैतन्य से।पुनः उस महाचैतन्य केे रस स्पर्श ही इसकी वास्तविक तृषा उदित होने लगती है, वर्धित होने लगती है। परंतु उस महाचैतन्य का स्पर्श तब तक सम्भव नहीं जब तक चेतना अपने जड़ीय आवरणों से युक्त है। तब तक न स्पर्श सम्भव है न ही तृषा वर्धन सम्भव।

     श्रीरसिक कृपा, श्रीधाम कृपा, श्रीगुरु कृपा से जड़ता के यह आवरण छिन्न भिन्न होने लगते हैं।श्रीरासिकों के मुख से निसृत वाणी इस रस तृषा को जीवंत करती है, तृषा को प्राण देती है, उसे विकसित करती है, जिससे यह तृषा विकसित हो पल्लवित होने लगती है।चेतना जब अपना वास्तविक सुख, वास्तविक मूल पहचान लेती है तो पुनः पुनः उसी मार्ग पर लौटने लगती है। श्रीरसिकों की कृपा, श्रीगुरुदेव कृपा से दुर्बल चेतना पुनः बलवती होकर अपने मूल की ओर उछलने लगती है। कृपा का यह बल ही इस तृषा को वर्धित करता रहता है।

       श्रीरसिक वाणी में ऐसा अद्भुत सामर्थ्य है कि इसका एक एक वाक्य चेतना का निर्मलीकरण करता है।वास्तविक श्रवण वही है जो भीतर तृषा उत्तपन्न करे, ऐसे श्रीरसिक मुख से निकला एक एक वाक्य भीतर के जड़त्व का भेदन करता है, अहंकार की परतें हटा सकता है, जिससे वह चेतना इस अमृत सुधा का पान कर बलवती होने लगती है और अपने मूल स्तोत्र की ओर बढ़ने लगती है, जहाँ से छूटी है पुनः वहीं लय होकर ही तो विश्राम पा सकती है।

     श्रीगौर चरणों मे पुनः पुनः यही विनय है कि ऐसे रसिकों का सँग जीवन मे उनकी कृपा से बना रहे, श्रीगुरु कृपा से यह मलिन चेतना कभी निर्मल हो सके, उन्हीं से बल आश्रय ले बलवती होकर सच्ची *तृषित* हो सके ।

श्रीगुरु गौरांगो जयते

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