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झूमका बिहारिणी देवजू

मेरे पिय प्यारी कौ झूमका सखि कहत परस्पर प्रेम।
लाल बलि लाड़िली हो।
ए दोऊ निमिष न बीछुरैं सखि इन्हैं प्रेम कौ नेम।।1।।
प्रथम लड़ैती गाइहौं जाकौ श्रीवृंदावन धाम।
पुनि रसिक रंगीलौ गाइहौं जाकौ कुंजबिहारी नाम।।2।।
नख सिख सुंदर सोहईं दोऊ अद्भुत रूप अपार।
एक प्रान तन द्वै धरैं अति मधुर प्रेम रस सार।।3।।
पहिलौ झूमक ताहि कौ जाकौ सोहत सहज सुहाग।
दूजौ झूमक ताहि कौ जाके बाढ़त अति अनुराग।।4।।
पूरन प्रेम प्रकासिनी श्रीस्यामा अति सुकुमारि।
मोहन जू के नैन चकोर लौं ससि जीवत वदन निहारि।।5।।
नव चंपक तन कामिनी पिय सुभग साँवरे अंग।
दोऊ सम वैस विराजहीं लजि लागत पगनि अनंग।।6।।
नित नवल किसोरी नागरी नित नागर नवल किसोर।
प्रेम परस्पर झूमहीं जुरि दोऊ नव जोवन जोर।।7।।
तन मन अरुझि न सुरझहीं दोऊ मगन मदन मद मोद।
प्रेम सहेली सुंदरी दोऊ दौरि लिये गहि गोद।।8।।
झूमत झूमत आवहीं छबि अंसनि झूमक बाहु।
कुंज कुटी तन मन दिये दोऊ फूलत नागरी नाहु।।9।।
झूमक झाबा झलकहीं नीबीबंद बाजूबंद।
तरकि तरकि बंद टूटहीं सुख लूटत अति आनंद।।10।।
स्याम अधर अंजन भये मिलि राते नैन कपोल।
श्रम जल कन वदन विराजहीं मनौं नव मुक्ता निरमोल।।11।।
अब औरै छबि छाजहीं सखि देखौ मन दै धाइ।
अपनौ सर्वस साँवरौ लेहु ललना लाल लड़ाइ।।12।।
झूमक सारी झूमहीं सखि पहिरैं झूमक दैहिं।
हरषि हरषि रस वरषहीं सखि निरखि निरखि सुख लैहिं।।13।।
श्रीवृंदावन दिन झूमका सखि झूमि रह्यौ फल फूल।
सुनि मन मुदित सबै आईं झूमि कालिंदी के कूल।।14।।
मेरे कुंज रवन कौ झूमका गुन गावत कोकिल कीर।
प्रेम उमँगि हियौ भरयौ सुख झूमत जमुना नीर।।15।।
माते मुदित सिलीमुखा झूमि देत मधुर सुर घोर।
आनंद उमँगि अलापहीं कल नाचत मोर चकोर।।16।।
झुंडनि झुंडनि मृगा मृगी जुरि नैननि झूमक दैहिं।
सुंदर वदन निहारहीं सुर सबद श्रवन भरि लेहिं।।17।।
निरखि निरखि मुख रुख लिये बहुरी सब सीस नवाइ।
तन मन गुन अर्पन कियौ सुख दीनौं दुहुँनि अघाइ।।18।।
तब उनमान्यौ मन कौ मतौ सखि लै चली सुहित जनाइ।
सुंदर पुलिन सरस कन झलकत कमल कुमुद देखौ आइ।।19।।
तहाँ सारस हंस प्रसंसित झूमक देत सुगतिन दिखाइ।
प्यारी हार पीताम्बर पिय सौं रीझि दियौ सुख पाइ।।20।।
आगे उमँगि चलत लटकत सखि झूमक दै दुलराइ।
तहाँ नये नये रस छाकत कौतुक उझकत छबि रहि छाइ।।21।।
कदली कुंद कदंब अंब वन वीथिन वर विरमाइ।
तन वन किधौं वन तन भयौ कछु ब्यौरौ वरन्यौ न जाइ।।22।।
मनि मंडल मुक्ता महल बहु रतन सार चित्रसाल।
कनक कलस छाजे झलकत बहु झूमत रतन प्रवाल।।23।।
मधि मंजुल नव कुंज किसलय दल सीतल सेज सुरंग।
कोमल कुसुम सरस सौरभ सब सम पराग बहु रंग।।24।।
जाके परदनि द्वार झरोखनि झूमत मनसिज मदन अनंग।
तहाँ बैठे रीझि सराहि रसिकवर निरखि हरषि अंग अंग।।25।।
चिबुक टटोरत छंद बंद छोरत परसत हँसत उतंग।
याही रस खेलत पुनि पुनि पिय प्यारी लेत उछंग।।26।।
अंग राग अनुराग रँगे दूलह दुलहिनि द्वै देह।
सहचरि कहत सुरति सुख सागर झूमौ सहज सनेह।।27।।
जै जै श्रीहरिदास प्रताप चरन बल विपुल सु प्रेम प्रकासि।
मेरे गौर स्याम कौ सरस झूमका झूमि बिहारिनिदासि।।28।।

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