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हरिरिह ब्रजयुवतीश संगे।

अष्टपदी – गुसांईं जी

हरिरिह ब्रजयुवतीश संगे।
विलसित करिणीगणवृतवारणवर इव रतिपतिमानभंगे॥

विभ्रमसंभ्रमलोलविलोचनसूचितसंचितभावं।
कापि दृगंचलकुवलयनिकरैरंचति तं कलरावं॥१॥

स्मितरुचिरुचिरतराननकमलमुदीच्य हरेरतिकंद।
चुंबति कापि नितंबवतीकरतलधॄतचिबुकमंदं॥२॥

उद्भटभावविभावितचापलमोहननिधुवनशाली।
रमयति कामपि पीनघन्स्तनविलुलितनववनमाली॥३॥

निजपरिरंभकृतेनुद्रुतमभिविक्ष्य हरिं सविलासं।
कामपि कापि बलादकरोदग्रेकुतुकेन सहासं॥४॥

कामपि नीवीबंध विमोकससंभ्रमलज्जितनयनां।
रमयति संप्रति सुमुखि बलादपि करतलधृतनिजवसनां॥५॥

प्रियपरिरंभविपुलपुलकावलि द्विगुणितसुभग शरीरा।
उद्यागति सखि कापि समं हरिणी रति रणधीरा॥६॥

विभ्रमसंभ्रमगलदंचलमलयांचितमंगमुदारं।
पश्यति सस्मितमपि विस्मितमनसा सुदृशः सविकारं॥७॥

चलति कयापि समं सकरग्रहमलसतरं सविलासं।
राधे तव पूरयतु मनोरथमुदितमिदं हरि रासं ॥८॥

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