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भाव लालसा । सँगिनी

हर्ष...उन्माद...रस...आनंद...यही चाह रहे ना तुम सब...पर चाहना करना नहीं जानते...जानते केवल जागतिक व्यवहार...चाहते तो परमानंद हो पर माँगना नहीं आता तो धन... सिद्धि...शांति... सेवा... विद्या...
और जाने क्या  क्या... !!
और माँगते माँगते इतने स्वार्थी हो जाते हो कि सृष्टि ही माँग लेते...पर होगा क्या ये सब पा जाओगे तो...तृप्ति होगी क्या ... ??हो जाओगे तृप्त तुम सब पाकर... ??
और इन सब माँगों के पीछे माँग एक ही है...प्रसन्नता...आनंद...और प्रेम !!
आह...प्रेम...
नहीं तुम सब चाहते...पर प्रेम नहीं चाहते...सो पाया हुआ सब भी अधूरा ही लगता तुम्हें...
चाहते तुम प्रेम हो...बचपन से लेकर जीवन की इंतहा तक केवल प्रेम...जो तुम्हें माँ के आँचल में मिला था कभी...पर फिर तुम बड़े हो गए...इतने बड़े कि उस निश्चल प्रेम के आँचल से किंचित मुख मोड़ बैठे और खो गए...
अब चाह रहे हो वही प्रेम लेकिन आँचल की दरकार नहीं...आश्रय नहीं...आश्रित नहीं...स्वयं से पाना चाहते...
अब देखो...सब माँग रहे...माँग रहे धाम जाकर...आश्चर्य होता कि माँग रहे... *किशोरी तेरे चरनन की रज पाऊँ* ...
अरे...वो तो दे ही चुकीं...पर क्या देना चाहतीं वो...वो तुम क्यों नहीं चाह रहे...अनंत देवी देवताओं को पूजते तुम अनंत सेवाएँ पा भी जाते...पर क्या कभी सोचा कि जिनकी चरन रज तुम चाह रहे...वो प्रेम देव...प्रेम की प्रतिमा...उज्ज्वल प्रेम ही देनहार हैं तो वे सेवाएँ कैसे दे सकते जागतिक...प्रेम लुटा रहे वे...वंशी अधर धर और कोमला सुकुमलता कर भर...पर तुम चाह कर भी चाहना नहीं कर पाते उनसे उस दिव्य प्रेम की जो धरोहर है तुम्हारी...जननी...प्रेरक...सर्वसुखों की सार है...पर तुम उन्हें पहचान तक नहीं पा रहे...
क्या करोगे चरनन की रज पाओगे तो...मस्तक धरोगे...मुख में रखोगे...पर उससे होगा क्या...
केवल सहेज लेने से धन की वृद्धि...या उत्पत्ति...सृजनात्मक खोज नहीं होती...उसका उपयोग किया जाता...और उपयोग कर उसकी वृद्धि भी की जाती पर परमानंद प्रेम की वृद्धि हेतू प्रेम देव से याचना ही नहीं...
और तो और वे ऐसे रसिक प्रेमी कि दोनों हाथों से तृषित हुए लुटा रहे...पर तुम लेते नहीं...तुम्हें लेना आता ही नहीं...तो ग्रहन कैसे कर सकोगे...उनको लेना भी...अपनत्व...प्रेम...और तो कुछ नहीं चाहते ना वे तुमसे...परम प्रेमी वे...परस्पर रस...श्रृंगार...और सेवाओं में सहज ही घनीभूत वे...और लुटा भी रहे...पर तुम नहीं लेते...
वे देने को भी तृषित...पर तुम लेने में भी तृषा खो बैठे...
केवल बांचने से कुछ ना पाओगे...सहेजने से सृजन ना होगा... *प्रेम देव* *प्रेम देवी* के दर पर जाओ तो उन जैसी तृषा जगाओ...तो तृषित करों से लुटते तृषित प्रेम को समझ कर पा सकोगे...वही जो सर्वकामनाओं की अंतिम माँग है...वह है *प्रेम* !!....
सौभाग्य लुटा रहीं वे...परस रहीं एक नीलकमल के हिय सम खुले आँचल से...सहेज सको तो सहेज लो...भर लो दामन अपना उन चरणों की सौभाग्यरेखाढ्य शीतल सम प्रेमभावित भावनाओं से...पसारो झोली तृषित भावसुमनों हेतू...और भर लो...भर लो तृषा भीतर...नवसींचन हेतू...जो तृषित देनहार दे रहे...लूट लो खजाने जहाँ तुम्हारा सर्वहित ही हित उंडेला जा रहा...जयजय
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!

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