*परस्पर सेवक परस्पर सेव्य*
सुनहली रस की उज्ज्वल सेज पर सजै *दोऊ चंद दोऊ चकोर...*
तृषित अधर...उमगित हियहर्षिणी...
*करत सिंगार परस्पर दोऊ*
इक नयन ते आरसी सुख निहारत...दूजो नैन सलोनी ताम्बुल परसत...करत करत रस सिंगार द्वैजन त्रिजन चौजन ह्वै जात... *परस्पर सेवक परस्पर सेव्य* परस्पर रसभूत सारभूत घनिभूत हुए समात...
सेवा लिए थाड़ी सखी...इक रूप चकोर...इक रस विभोर...स्वै विस्मृत अतन सेवा हुइ न अघात...इत भई नीलमणि...हिय सजी...उत भई लाल सुख देत...चरन सौं लालित्य हुइ समात... ... ...
"गौर स्याम नैंननि बसैं,झलमलाइ दोऊ रूप।
काम केलि विलसत रहैं,अद्भुत सुखद अनूप ।
कहिवे कौं तौ तीन हैं,सुख मिलि विलसैं एक।
तन मन विलसैं दोइ मिलि,मन करि विलसैं एक।।"
सेवा करनो चाहूँ...पर सेवन कौ भाव ना जानूं...कैसी सेवा और कैसे सेवूं...
साचि कहूँ...तो जे सेवा सेवन के तांई चाह से नाए है सकै...जे ह्वै अचाह सौं...खो जावे ते...विस्मृति में...
कैसी विस्मृति...अद्भुत विचित्र स्थिति...जहाँ सेवक सेव्य एक है जावैं...और सेवन सेवन सौं स्वयं की सुद्धि ना रह्वै...किंचित भाव हू तें खोइ खोइ रह्वै...
सखी...जे प्रेम प्रेम कौ खेल बड़ो न्यारो री...ऐसो सरस उज्ज्वल कि यामें दो न समाए तो सेवक सेव्य सेवा...जे भिन्न होय कैसे विचर सकैं सांकरी गलिन तें...
आत्मा सदेव परम सौं मिलन तांई आकुल ब्याकुल रहे और परम सदेव तृषातुर अपनो आत्मीय नेह लौटा लावे के ताईं... !!
सखी...जे परम और आत्मा कौ मिलन तांई जे देह अनंत सेवाएँ करै...कबहूँ कर होइ जावै...कबहूँ चरन...तो जे प्रेम कौ खेल अति न्यारौ...अति घनेरो...इतनो कि उज्ज्वल होइ खिलै...
जुगों से जे खेल खेल रह्यौ...जुगल रूप ह्वै जावे...पर होवे तो एक ही ना...
एकहु कड़ी सौं जुड़े रह्वैं...वो जे प्रेम...प्रेम की पराकाष्ठा...प्रतिक्षण नव नव होए के नव नव खेल रचै और सहचरेश्वरी संग कैंकरत्व कौ खेल उज्ज्वल है जाए...यामें दो ना समाए सखी...
पर ऐसो नेह लाऊं कहाँ से...कहाँ से ध्याए ध्याए तोहे निरखाऊँ...निरख निरख स्वैच्छिक सेवन सुख पाऊँ...ऐसो प्रेम तो सखियन करैं जुगल सौं ...ऐसी सेवा कि स्वयं जुगल ह्वै जाए...या यूँ कहूँ जुगल ही सखीरूप सेवा हो जावैं...आह...कैसे कर तोहे सुझाऊँ...
नयन मूँद तोहे अपनी परम आराध्या सौं मिलवाऊँ...एकाग्र हुई तू मुझमें और मैं तुझमें खो जाऊँ...तब निरखन ते सखी...जान पावै जे अद्भुत अनूठो प्रेम कौ खेल...
जुगल बिराजै भए प्रेम हिय सेज पर...निहार रहे परस्पर...पर जे निहारन ऐसी...कि आरसी ह्वै जाएँ...यानें कोऊ भिन्न आरसी की आवश्यकता ना है री...याकों जे भाव ही सखीरूप रीझे बिराजे...और आरसी धरै स्वयं सेवन सुख तांई आरसी ह्वै जाए...निहार निहार...रसातुर तृषातुर भए तो नव भाव उपजै...जड़ता सौं उबारन तांई...अधर ताम्बूल हुए रस ही रस पवाएँ...सखीरूप स्वयं ताम्बूल वीटिका धर नवस्वरूपन सौं रिझाए...
सखी...यामें दो ना समाए....
तो जे सखीस्वरूप कैसो री...जे तो खेल अनियारो...अति गहन...रस हू की प्रगाढ़ता सौं...श्यामसुंदर की निहारन आरसी रूप...और प्यारी जू की रसपान कराने की प्रियतमसुख चाहना ही ताम्बूल वत् नव श्रृंगार धर लेवै...द्वै पात्रन सौं अद्वैत कौ सेवन...अहा... ...
सखी...तनिक निहार तो जे सखी...स्वयं प्रेम की पराकाष्ठा...प्यारे जू के हियसुख हेतु आरसी लिए खड़ी...प्यारे जू नयन हुए निहार रहे आरसी में प्यारी रूपमाधुरी...
और जे प्यारी जू कौ अधर जैसे प्रियतम के हिय की तृषा हुए ताम्बूली रस घोलती सखी...प्यारे अधरों पर सजाती सुरख सुरभता...स्वतः सेवा हुई समक्ष खड़ी...जड़ता ना व्यापे...सो नव नव स्वरूपन तांई परस्पर कौ सिंगार करत...और परस्पर कौ सेवैं सखी...
परम और आत्मा के मिलन में देह तो पंचतत्वभूत मात्र कठपुतली सो खेल खेलै और सुख देवै परम को...
प्रेम प्रेम कौ खेल ऐसो ही सजै...याके रस हू कौ चाखन तांई...स्वयं सेवा होनो होवे और जब स्वयं सेवा होते हुवे समक्ष द्वैत खो जावे तो सेवन कौ आनंद अति अतिहि गहन होवे री...
" करत सिंगार परस्पर अँखियाँ आरसी करि मेरी।
जदपि अंग अंग अनेक नग दीपति तदपि लई हौं नवल नागरी नेरी।।
अंजन मंजन के मनरंजन जहाँ जहाँ चाहि चितवत हरि तहाँ तहाँ तित हौं हेरी।
श्रीबिहारिनिदासि स्वामिनी स्याम सखी नेकुं न बिसरत कहत हमरे तन मन प्रीति निजु तेरी।।"
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!
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