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श्यामल महाभाव , तृषित

श्रीजी से पृथकता झँकन बनी रहना या पृथकता की लालसा बनी रहना महाभाव दशा नहीं है । 
चेतन तत्व (आत्मा) साम्य होकर भी संस्कार आदि द्वारा विशेषणों से नव नव रूप में सज्जित है । प्रेम सहजतम चेतन रसतत्व है और वही उनकी प्रीति हमारे भीतर छोड़ी गई है । बाह्य आवरणों में वह प्रीति सुक्षुप्त या अस्तवत है परन्तु निजतम प्रियतम संस्पर्श और प्रियतम रस मज्जन से वह प्रीति स्पर्श आपको हो सकता है । वही स्पंदन वें प्रिया है जो कि स्वयं के सर्वतोभावेन सरलतम प्रेम में डूबकर प्रेमास्पद में खो जाने से झँकृत होती है । यह झँकृति सभी चेतन तत्वों की नव नव है । जैसे एक सँग और एक रात में एक ही स्थली पर खिलें गुलाब और मोगरे की सुगन्धें भिन्न है । जैसे क्षेत्र या जलवायु की भिन्नता पर गुलाबों की सुगन्ध भी कुछ नव-नव हो सकती त्यों हमारे स्वभाव उनकी ललिताईं का सूक्ष्मतम चेतन बिन्दु ही है ।
आप स्वयं को पृथक मानो प्रथम उन्हें उनकी वस्तु लौटाकर , प्राण पर प्राणी का अधिकार है क्या ??? आपके पास उनका जो जो है वह सब उन्हें देने के बाद जो शेष है वह ही भाव है । 
वह भाव भी स्वयं को दृश्य या अनुभूत तत्व नहीं है , वह भी उनके या उनकी निजताओं को हमारे सहज समर्पण से अनुभव होगा । 
ज्यों रज को स्वयं की सुगन्ध से क्या अर्थ ... 
या रजत (चाँदी) को स्वयं के गुणों से क्या लाभ ... 
परन्तु अपनी ही गौ का दूध अपने ही द्वारा बने भिन्न धातु और रस या रज पात्रों से वें पीते है तो उन्हें उसकी सहज विशेष सुगन्ध झलकती है । 
जिन्होंने सदैव केवल रज के पात्र में दूध पिया हो उन्हें रज की सुगन्ध नहीं आवेगी तदपि कोई धातु के पात्र में दूध पीने वाले को रज पात्र में कभी पीने को मिलें तो नव सुगन्ध आवेंगी । 
यह दूध (प्राण या प्रीति) उनकी वस्तु है तदपि यह जीवन और इसकी रूपरेखा से नव नव सुगन्धें सभी में है और उन्हें वही इस प्रीति पुहुप की समस्त दशाओं का उत्स अर्थात् जीवन रूपी सुगन्ध स्वभाव रूप में चाहिये । 
जीवन के स्वभाव रूपी उत्स का गठन भी उन्होंने ही किया है क्योंकि बीज वही बोयें है । जैसे किसान धान बोए तो निश्चिंत है कि धान की ही फसल होगी त्यों साम्य ताप या शीतलता या जलवायु या आहार ग्रहण करने पर भी जीवन का स्वाद भिन्न उन्हें मिलेगा ही मिलेगा । पिता-पुत्र या भाई-भाई में भी सम्पूर्ण भावगत साम्यता नहीं होती । एक भाव ही आपका सहजतम उनके द्वारा प्रदत्त विशेषण है जो कि सहज उनका उत्स है । भीतर भरी प्राण रूपी यह प्रीति उन्हें दीजिये और मञ्जरी वत शून्यतम होकर विचारिये कि अब शेष ही क्यों हूँ ...प्राण तो प्राणिनी हो प्राणेश को सौंप ही दिए अब यह द्वन्द या द्वेत क्यों ... 
ललित रीति होने के प्रभाव से सम्पूर्ण समर्पण के पश्चात शेष उत्सव रूपी स्वभाव (जीवन) उनके मिलन में सहजतम मिलित तत्व है । ज्यों श्रीप्रिया की नयनों में फूलते नीलमणि और श्रीप्रियतम का इन मणियों का घन छटा दर्शन से कृष्णिम होना । 
दृग रूपी झरणो में कृष्णिमा भर रही हो तो श्रीप्रियतम के रूप पर झलकेगा वह कज्जल रँगन । और श्रीप्रिया कृष्ण सङ्केतों में श्रीप्रिया अपनी निजताई से झरित कृष्णिमा का चित्रांकन अभिसरण नहीं करती । जितनी भी कृष्णिमा उनके रूप पर झँकृत है वह प्रेम कौतुकों से प्राप्त उन्हें उनके कृष्णसुख है । 
श्रीप्रिया की श्यामामयता भी श्याम सँग सुरँग स्नान है ... अपनी श्यामलता वह अपने तनु पर व्यय नहीं करती और श्रीलाल के पास जितनी श्यामलता है वह श्रीप्रिया द्वारा सहज उनके दृग - हिय - रोम रोम - प्राण प्राण में आ बसती है । एक श्यामल रँग का इत उत का यह चित्र विचित्र कौतुक स्वयं वह श्यामलता नहीं जानती सो हम उसे कहते है कि हे श्यामल रस तू ललित अनुसरण कर पी और पिला श्यामलित रँगोत्सव ।

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