Skip to main content

बेनी श्रृंगार , स्ँगिनी जू

*बेनी श्रृंगार*

"बेनी गूँथि कहा कोऊ जानें मेरी सी तेरी सौं...
बिच बिच फूल सेत पीत राते को करि सकै एरी सौं..."

सखी हिय की एकहूँ लालसा...प्यारीपिय जू सदैव मिले भरेपुरे रहें...आरसी सम्मुख निहार रही...बेनी गूँथ रही प्रिया जू की...
पर तृषित चकोरवत् निहारते निहारते श्यामसुंदर सखी सौं प्यारी जू बेनी गूँथन सेवा लेनौ चाह रहे...
सखी अतर्गिंनी...प्यारीपिय हिय जू की रसीली जैसे सब जानती...और पियहिय सूखानुरूप लीला निवारण करती उन्हें रसमुदित करती...
मात्र नेत्रभृकुटि की किंचित सी थिरकन से सखी प्रियतम को प्यारी जू की बेनी को निहारते रहने को कहती और नयन मूँद प्यारी जू की मुग्धता को अति मुग्ध रसवर्धन हेतु मौन रहने को भी...
प्रियतम सखी की बात मान जैसे ही प्यारी जू के अंतर्मन के भावों को पढ़ना आरम्भ कर बेनी को निहारते तब...अहा...
प्रतिबिम्ब में प्यारी जू सखी के करों में थामे श्यामल केशों को निहार रहीं...सखी के करों में दो ही लड़ में केश संवरने लगे...सुलझे हुए...बस... एक होने को...आह...
परंतु इस एकरसता में रसपुलक हेतु सखी दो सुलझे हुए केश लड़ों को तीन भागों में विभाजित कर देती...
तीसरा लड़ वह है जो सुलझते डूबते हुए श्यामल लड़ों को स्वरस विस्मृत होने से रोक रहा...और हितरूप उन्हें उल्झ सुलझ कर केलि हेतु पिपासित कर रहा...तृषा ना छूटने पावै...सो सखी...दो सम रसतृषाओं के मध्य प्रतिपल नवीन होती तीसरी तृषा का रूप धर बैठी है...केलि हेतु...
एक एक कर सम्पूर्ण रसराशि स्वरूप किशोरी जू की बेनी के तीनों लड़ बंध चुके और अंतिम छोर पर तीनों को एक कुसुमित बेल से बाँधते हुए सखी सम्पूर्ण बेनी को पुष्पाविंत लड़ियों से एकजुट सुसज्जित कर देती है...
आहा...हो गया बेनी श्रृंगार...श्यामल घन सम केशों के तीन छोर एकरस... *सम वैस किशोर* और उन पर गौरवर्ण रसमुदित रसराशि मकरंद सौरभित पुष्प कलियों की सुघर बंधनिका...जयजय
निहार रही अब स्वयं को भूली सखी... ... ..
क्या ... ??
अहा... *सजीली सेजरिया से ढुरका सा पीताम्बर और समस्त रस तेजपुंज को समेटे सहेजे हुआ नीलाम्बर*
*ढाँप सखी ढाँप* अंचल सौं अपलक डूब रहे युगनयनों को ढाँप लेती...
नख से शिख तक प्यारी जू की रसवल्लरी सजीली फरकीली लहलहाती रससुधा सी...
प्रियतम नयनचकोर रसक्षुधित से चित् प्यारी सुकुमारी लज्जाशीला जू की चंद्रिका पर मोरपखा लहराता निहारते रह गए और उधर सखी सम्पूर्ण रसाधिके किशोरी जू के भावस्वरूप में डूबी रचदी...धरदी बेनी श्रृंगार की नवनवायमान नित्य नूतन रहस्यमय बेनी गूँथन लीला...जिस पर प्यारीपिय स्वयं हियहार निहार हो पुलकित उमगित...उन्मादित... ...विस्मृत प्रियतम निहार निहार में स्वयं बेनी भी गूँथ रहे जैसे और काजर की रेख से सजे नेहभरे...कौन कौन कू सिंगार धराए रह्यौ...आह...सर्वलीला रूप एक झलकमात्र पियप्रारी को सुखरूप सेज पर सुसज्जित कर दियो... ... ...
जयजय ... ... ...

*गूँथ री ...सम्पूर्ण तन्मयता सौं गूँथ*

जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात